निदा फ़ाज़ली की ये पाँच रचनाएँ छू लेंगी आपका दिल...!

उर्दू शायरी के बाकमाल शायरी निदा फाज़ली की ग़ज़लों को जब भी पढ़ो तो कुछ नया ही तजुर्बा दे जाती हैं। एक तरफ वो अलबेली लड़की जिसके ज़िक्र ने निदा फाज़ली साहब को इतना बेहतरीन शायर बना दिया, वहीं दूसरी ओर उनकी लेखनी ने उन्हें लोगों के दिलों में बिठा दिया। आज बिना ज्यादा कुछ कहे आइये सीधे पढ़ते हैं निदा फाज़ली की लेखनी से निकली हुई ये चुनिंदा ग़ज़लें और अन्य रचनाएँ...।

हँसने लगे हैं दर्द, चमकने लगे हैं ग़म,
बाज़ार बन के निकले तो बिकने लगे हैं हम।

नींदों के पास भी नहीं अब कोई रागिनी,
सोते हैं थक के जिस्म मगर जागते हैं ग़म।

अपना वजूद ही था पहाड़ों का सिलसिला,
हर रास्ता था साफ कहीं पेच थे न ख़म।

ख़ुशहाल घर, शरीफ़ तबीयत, सभी का दोस्त,
वो शख्स था ज़्यादा मगर आदमी था कम।।

उसके दुश्मन हैं बहुत, आदमी अच्छा होगा,
वो भी मेरी ही तरह शहर में तनहा होगा।

इतना सच बोल कि होंठों का तबस्सुम न बुझे,
रौशनी ख़त्म न कर, आगे अँधेरा होगा।

प्यास जिस नहर से टकराई वह बंजर निकली,
जिसको पीछे कहीं छोड़ आये वो दरिया होगा।

मेरे बारे में कोई राय तो होगी उसकी,
उसने मुझको भी, कभी तोड़ के देखा होगा।

एक महफिल में कई महफिलें होती हैं शरीक,
जिसको भी पास से देखोगे अकेला होगा।।

रात के बाद नये दिन की सहर आयेगी,
दिन नहीं बदलेगा तारीख़ बदल जायेगी।

हँसते हँसते कभी थक जाओ तो छुप के रो लो,
ये हँसी भीग के कुछ और चमक जायेगी।

जगमगाती हुई सड़कों पे अकेले न फिरो,
शाम आएगी किसी मोड़ पे डस जायेगी।

और कुछ देर यूँही जंग, सियासत मज़हब,
और थक जाओ अभी नींद कहाँ आयेगी।

मेरी गुरबत को शराफत का अभी नाम न दे,
वक़्त बदला तो तेरी राय बदल जायेगी।

वक़्त नदियों को उछाले कि उड़ाये पर्वत,
उम्र का काम गुज़रना है गुज़र जायेगी।।

वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की
जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है।
सुना है
वो किसी लड़के से प्यार करती है
बहार हो के, तलाश-ए-बहार करती है
न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ
बस उसी वक़्त जब वो आती है
कुछ इंतिज़ार की आदत सी हो गई है
मुझे
एक अजनबी की ज़रूरत हो गई है मुझे
मेरे बरांडे के आगे यह फूस का छप्पर
गली के मोड पे खडा हुआ सा
एक पत्थर
वो एक झुकती हुई बदनुमा सी नीम की शाख
और उस पे जंगली कबूतर के घोंसले का निशाँ
यह सारी चीजें कि जैसे मुझी में शामिल हैं
मेरे दुखों में मेरी हर खुशी में शामिल हैं
मैं चाहता हूँ कि वो भी यूं ही गुज़रती रहे
अदा-ओ-नाज़ से लड़के को प्यार करती रहे।।

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिकारी क्या,
वो हर दीदार में ज़रदार है गोटा किनारी क्या।

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते,
नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या।

उसी के चलने-फिरने, हंसने-रोने की हैं तस्वीरें,
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या।

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको,
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या।

हमारा मीर जी से मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन,
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या।।

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