अनन्त आलोक की कविता का यह कटाक्ष उड़ा देगा आपके होश...!

हिंदी की सेवा करते हुए समाज के सामने ही उसके बिखरेपन पर कटाक्ष करते हुए उसे आईना दिखाना और साथ ही एक सुधार की दृष्टि से अनोखे उदाहरणों को सामने रखने की कला से संपन्न हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के नाहन में जन्मे अनन्त आलोक की लेखनी से निकली कविताओं में भरपूर व्यंग्य नजर आता है। अनंत आलोक के रचना संसार में से आज कुछ दो ऐसे मोतियों को छाँट कर हम आपके लिए ले कर आये हैं उनमें एक जीवन के अनुभवों का बयाँ है तो दूसरा मनुष्यों के बिखराव पर व्यंग्य।
कल रात भर
मैं तन्हा ही भटकता रहा
यादों के बियाबान जंगल में
जंगल भरा पड़ा था
खट्टी मीठी और कड़वी
यादों के पेड़ पौधों से
जंगल के बीचोंबीच उग आए थे
कुछ मीठे अनुभवों के विशालकाय दरख़्त
जो लदे पड़े थे मधुर एहसासों के फूलों-फलों से
बीच-बीच में उग आई थी
कड़़वे प्रसंगों की तीखी काँटेदार झाड़ियाँ
जिनके पास से गुज़रने पर
आज भी ताज़ा हो जाती है वो चुभन
और उछल पड़ता है दिल
मेरे एकदम सामने बैठी
जुगनुओं जड़ी चादर ओढ़े
मनमोहक, साँवली-सलोनी निशा
नींद की बोतल से भर भर
नैन कटोरे
पिलाती रही मुझे
रात रस
लेकिन मैं बहका नहीं
बढ़ता ही गया आगे
और आगे।
जंगल में एक साथ
कईं दरख़्तों का सहारा ले
झुलती नन्हीं समृतियों की बेलें
पाँव से उलझ पड़ी अचानक
और मैं गिरते गिरते बचा!
जंगल ने पीछा नहीं छोड़ा मेरा
मैं भागना चाहता था
मैंने कईं बार छुपाया स्वयं को
रजाई में मगर जंगल था कि
उसके भी भीतर आ गया
उसने क़ैद करके रखा मुझे
सुबह होने तक।
मैं हेरान हुआ !
एक ही दुकान में
एक ही टोकरी के अन्दर
शरीर से शरीर सटाए
एक साथ चुपचाप पड़े हैं
आलू और प्याज !
एकदम निश्चिन्त ।
कोई लड़ाई न झगड़ा
न भेद न मतभेद, कोई ग्लानि न खेद
सुख-दुख में इक दूजे का साथ देते
पूछते , सहलाते, सांत्वना देते
मैं हैरान था !
प्राण लेवा रोग से ग्रस्त कुछ
आलू प्याज, एक दूसरे के शरीर से निकलता
मवाद, बदबूदार पीक, सड़ान्ध मारता पानी
ले रहे थे अपने ऊपर
बिना किसी परेशानी के ।
मैं हैरान था !
यहाँ कोई हड़बड़ाहट
कोई जल्दबाज़ी नहीं थी
न कोई प्रतिस्पर्धा न होड़
न बिकने की जल्दी न होड़
न कोई बेईमानी न जत्थेबन्दी
न अलगाव न बहकाव
न कोई आरक्षण न विरोध
न स्ट्राइक, न प्रदर्शन
आवश्यकता ही नहीं !
क्योंकि यहाँ कोई किसी का हक नहीं मारता
ये सभ्यता है
इन्सानियत से भी बहुत पहले की
अक्षुण्ण ।
सब एक दूसरे के बीच यूँ पड़े थे
ज्यूँ शाम के समय शेड बन्द हो जाती हैं
गडरिए की भेड़-बकरियाँ
कोई पाँव में कोई गोद में
कोई सिर पर तो कोई बाँहों में ।
प्रेम भाव से दुकान में खड़ी
बिकने की प्रतीक्षा में पंक्तिबद्ध
तेल की बोतलें
कईं बार गिरा देती थी एक दूसरे को
लेकिन आलू-प्याज को देख
अब खड़ी रहती हैं
एकदम शान्त।
बस मुस्कुरा भर देती हैं
जब भी दिखता है उन्हें कोई
इन्सान...।
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