"रोशनी में किस क़दर दीवार ओ दर अच्छे लगे"- पढ़ें असअद बदायुनी की चुनिंदा ग़ज़लें...।

उत्तर प्रदेश के बदायूँ जनपद की सरज़मीं ने अनेकों कवियों और शायरों को जन्म दिया, जिनमें एक नाम 'असअद' बदायुनी का भी शुमार है। 25 जनवरी, 1952 को बदायूँ में जन्मे 'असअद' बदायुनी का मूल नाम असअद अहमद था। साहित्यिक पत्रिका दायरे के संपादक के तौर पर भी 'असअद' बदायुनी ने काम किया था। आइये आज बदायूँ की सरज़मीं के इस बाकमाल शायर की चंद रचनाओं को हम और पढ़ते भी हैं और उसका आनंद भी लेते हैं...।

रोशनी में किस क़दर दीवार ओ दर अच्छे लगे,
शहर के सारे मकां सारे खण्डर अच्छे लगे।

पहले पहले मैं भी था अमन ओ अमां का मोतरिफ़,
और फिर ऐसा हुआ नेज़ों पे सर अच्छे लगे।

जब तलक आजा़द थे हर इक मसाफ़त थी वबाल,
जब पड़ी ज़ंजीर पैरों में सफर अच्छे लगे।

दाएरा दर दाएरा पानी का रक़्स जावेदां,
आँख की पुतली को दरया के भंवर अच्छे लगे।

कैसे कैसे मरहले सर तेरी ख़ातिर से किए,
कैसे कैसे लोग तेरे नाम पर अच्छे लगे।।

सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं,
अजीब लोग हैं दीवाने होना चाहते हैं।

न जाने किस लिए ख़ुशियों से भर चुके हैं दिल,
मकान अब ये अज़ा-ख़ाने होना चाहते हैं।

वो बस्तियाँ के जहाँ फूल हैं दरीचों में,
इसी नवाह में वीराने होना चाहते हैं।

तकल्लुफ़ात की नज़मों का सिलसिला है सिवा,
तअल्लुक़ात अब अफ़साने होना चाहते हैं।

जुनूँ का ज़ोम भी रखते हैं अपने ज़ेहन में हम,
पड़े जो वक़्त तो फ़रज़ाने होना चाहते हैं।।

शाख़ से फूल से क्या उस का पता पूछती है,
या फिर इस दश्त में कुछ और हवा पूछती है।

मैं तो ज़ख़्मों को ख़ुदा से भी छुपाना चाहूँ,
किस लिए हाल मेरा ख़ल्क़-ए-ख़ुदा पूछती है।

चश्म-ए-इंकार में इक़रार भी हो सकता था,
छेड़ने को मुझे फिर मेरी अना पूछती है।

तेज़ आँधी को न फ़ुर्सत है न ये शौक़-ए-फ़ुज़ूल,
हाल ग़ुँचों का मोहब्बत से सबा पूछती है।

किसी सहरा से गुज़रता है कोई नाक़ा-सवार,
और मिज़ाज उस का हवा सब से जुदा पूछती है।।

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