आज पढ़िए "असग़र गोंडवी" की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें...।

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्मे असग़र गोंडवी 19वीं शताब्दी के शायरों में शुमार हैं। असग़र गोंडवी मूलतः गोरखपुर के रहने वाले थे, उनके पिता का वहां निवास स्थान था। लेकिन असग़र के पिता मुंशी ताफज्जल हुसैन आजीविका के लिए स्थायी रूप से गोंडा में निवास करने चले गए, जहाँ वो कानून अधिकारी के रूप में काम करते। वहीं अपने स्वाध्याय और शिक्षा में रूचि के चलते उन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा और साथ ही काव्य लेखन भी शुरू किया। आगे चलकर उनकी लेखनी में संतुलन और तरलता पैदा हुई, जिसके उन्होंने मुकम्मल ग़ज़लें लिखनी शुरू कीं। आइये आज हम और आप पढ़ते हैं असग़र गोंडवी की कुछ चुनिन्दा ग़ज़लें...।

ये राज़ है मेरी ज़िंदगी का,
पहने हुए हूँ कफ़न खुदी का।

फिर नश्तर-ए-गम से छेड़ते हैं,
इक तर्ज़ है ये भी दिल दही का।

ओ लफ्ज़-ओ-बयाँ में छुपाने वाले,
अब क़स्द है और खामोशी का।

मारना तो है इब्तदा की इक बात,
जीना है कमाल मुंतही का।

हाँ सीना गुलों की तरह कर चाक,
दे मार के सबूत ज़िंदगी का।।

ये मुझ से पूछिए क्या जूस्तजू में लज़्ज़त है.,
फ़ज़ा-ए-दहर में तहलियल हो गया हूँ मैं।

हटाके शीशा-ओ-सागर हुज़ूम-ए-मस्ती में,
तमाम अरसा-ए-आलम पे छा गया हूँ मैं।

उड़ा हूँ जब तो फलक पे लिया है दम जा कर,
ज़मीं को तोड़ गया हूँ जो रह गया हूँ मैं।

रही है खाक के ज़र्रों में भी चमक मेरी,
कभी कभी तो सितारों में मिल गया हूँ मैं।

समा गये मेरी नज़रों में छा गये दिल पर,
ख़याल करता हूँ उन को कि देखता हूँ मैं।।

बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ , न मस्ती है न होश
ज़र्रे सब साकित ओ सामत हैं, सितारे ख़ामोश

नज़र आती है मज़ाहिर में मेरी शक्ल मुझे,
फ़ितरत-ए-आईना बदस्त और मैं हैरान-ओ-ख़ामोश।

तर्जुमानी की मुझे आज इजाज़त दे दे,
शजर-ए-"तूर" है साकित, लब-ए-मन्सूर ख़ामोश।

बहर आवाज़ "अनल बहर" अगर दे तो बजा,
पर्दा-ए-क़तरा-ए-नाचीज़ से क्यूँ है यह ख़रोश?

हस्ती-ए-ग़ालिब से गवारा-ए-फ़ितरत जुम्बां,
ख़्वाब में तिफ़्लक-ए-आलम है सरासर मदहोश।

पर्तव-ए-महर ही ज़ौक़-ए-राम ओ बेदारी दे,
बिस्तर-ए-गुल पे है इक क़तरा-ए-शबनम मदहोश।।

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