ग्रीन बकरीद और वर्चुअल बकरीद क्यों हो रहे इतना वायरल ?

मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना इफराहीम हुसैन बताते हैं कि ईद-उल-अजहा, जिसे आम बोलचाल में 'बकरा ईद' कहा जाता है, हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की कुर्बानी की याद में मनाई जाती है. मौलाना इफराहीम बताते हैं कि कुरआन शरीफ के मुताबिक, अल्लाह ने इब्राहीम की आजमाइश ली थी और उनसे उनके सबसे प्यारे बेटे हजरत इस्माइल की कुर्बानी मांगी थी.

बकरीद पर आमतौर पर मुस्लिम समुदाय के लोग बकरे या दूसरे हलाल जानवरों की कुर्बानी देते हैं. लेकिन इस बार वर्चुअल और ग्रीन बकरीद सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रही है. आइए आपको बताते हैं क्या है दोनों में अंतर. परंपरा और तकनीक की जंग में अब ईद-उल-अजहा भी दो राहों पर खड़ी है. एक तरफ हैं वो जो इस त्योहार को 'हरियाली' के साथ जोड़ना चाहते हैं. पेड़ लगाकर, मीट की बजाय मोहब्बत बांटकर...वहीं दूसरी ओर वो लोग हैं, जो मोबाइल स्क्रीन पर कुर्बानी देख रहे हैं, डिजिटल गेटवे से जानवर खरीद रहे हैं और वर्चुअल ईद की गले मिलती तकनीकी खुशबू में डूबे हैं. समय बदल रहा है और उसके साथ बकरीद भी...

सवाल ये नहीं कि क्या कुर्बानी हो रही है, सवाल ये है कि वो कैसे हो रही है. बकरीद पर आमतौर पर मुस्लिम समुदाय के लोग बकरे या दूसरे हलाल जानवरों की कुर्बानी देते हैं. लेकिन इस बार वर्चुअल और ग्रीन बकरीद सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रही है. आइए आपको बताते हैं क्या है दोनों में अंतर.

"ग्रीन बकरीद" नाम सुनकर लग सकता है कि ये कोई पर्यावरण दिवस है, लेकिन असल में यह एक सोच है. एक ऐसा नजरिया जो बकरीद की कुर्बानी को प्रतीकात्मक बनाने की कोशिश कर रहा है. इस विचारधारा के समर्थक मानते हैं कि जानवरों की बलि की जगह अगर पेड़ लगाए जाएं, जरूरतमंदों को पैसा या भोजन दिया जाए या प्लास्टिक और प्रदूषण से बचा जाए तो ईद का पैगाम और ज्यादा पाक हो सकता है. हाल के वर्षों में पेटा जैसे संगठनों और कुछ शहरी मुस्लिम युवाओं ने इसे सोशल मीडिया पर हवा दी है. #GreenBakrid जैसे ट्रेंड्स चलते हैं, जिसमें लोग भैंस, बकरी की जगह पौधे लेकर 'सेल्फी विद सैक्रिफाइस' करते हैं.

कोविड-19 ने दुनिया को बदला और ईद भी उससे अछूती नहीं रही. जब लोग मस्जिद नहीं जा सके, कुर्बानी के लिए जानवर नहीं खरीद सके तब जन्म हुआ "वर्चुअल बकरीद" का. यह तरीका तकनीक और आस्था का मेल है. ऑनलाइन वेबसाइट्स और ऐप्स के जरिए लोग कुर्बानी का जानवर बुक करते हैं, बलि किसी फार्म या संस्था दे देती है और मीट या तो उन्हें भेज दिया जाता है या दान कर दिया जाता है. कुछ प्लेटफॉर्म तो कुर्बानी की लाइव स्ट्रीमिंग भी कराते हैं जहां आप स्क्रीन पर बैठे-बैठे देख सकते हैं कि आपके नाम की कुर्बानी कब और कैसे हो रही है. इससे न सिर्फ भीड़-भाड़ से बचाव हुआ, बल्कि प्रवासी मुस्लिमों और व्यस्त लोगों के लिए यह एक सहज उपाय बन गया.

बकरीद यानी ईद-उल-अजहा जब करीब आती है, तो सिर्फ बकरों की कीमतें ही नहीं बढ़तीं, बढ़ता है हजारों लोगों का रोजगार, उम्मीद और बाजार में रौनक... ये त्योहार सिर्फ कुर्बानी का नहीं, किसानों, मजदूरों, पशुपालकों, ट्रांसपोर्टरों और कारीगरों के लिए भी कमाई का सबसे बड़ा मौका बनता है. खास बात ये कि इसका फायदा सिर्फ मुसलमानों को नहीं, सभी धर्मों और समुदायों के गरीब तबकों को होता है. बकरीद से पहले देशभर में बकरा मंडियां सज जाती हैं. इन मंडियों में जो जानवर बिकते हैं, उनमें से कई को पालने वाले हिंदू, दलित, आदिवासी या गरीब किसान होते हैं, जो बकरी, भेड़ या बैल पालकर सालभर इंतजार करते हैं बकरीद की बिक्री का.

अब सोशल मीडिया पर ग्रीन और वर्चुअल बकरीद ट्रेंड करने के साथ ही यूजर्स के रिएक्शन भी आने शुरू हो गए हैं. ग्रीन बकरीद की शुरुआत हो गई है, किसी भी धर्म में जीव हत्या नहीं होनी चाहिए. एक और यूजर ने लिखा...बकरीद आने पर ही सभी की जीव दया जाग जाती है. तो वहीं एक और यूजर ने लिखा...ग्रीन बकरीद ये सब केवल एक दिन चलने वाला है. बाकी खाते सब हैं.

 

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