बसंत की बहार को मिला इन कविताओं का उपहार...!

जब बागों में बहार हो, शीतल वायु की मंद बयार हो, खेतों में लहलहाती पीली सरसों हो, पौधों और पेड़ों पर नवपल्लव हों, आम के पेड़ों पर बौर आने लगे, बागों में मधुर स्वर में कोयल गाने लगे और आपके भीतर नई ऊर्जा और उल्लास के साथ मस्ती का ख़ुमार छाने लगे तो बस समझ लेना कि ऋतुओं के राजा बसंत का आगमन हो चुका है और उसने सभी पर अपना प्रभाव डालना शुरू कर दिया है। वहीं जब बसंती रंग में माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि आ जाती है तो हर दिल बस इस बसंती रंग में रंग जाना चाहता है। आज बसंत पंचमी के मौके पर विभिन्न कवियों के काव्यों के कुछ अंश आप सभी के मध्य रख रहे हैं, जिसमें बसंत का चित्रण बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है।

सबसे पहले बात करते हैंबसंत की शीतल मंद पवन की। बसंती हवा के अटखेलियों वाले रुख के बारे में केदारनाथ अग्रवाल ने कुछ इस तरह बयाँ किया है...।

हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।

        सुनो बात मेरी -
        अनोखी हवा हूँ।
        बड़ी बावली हूँ,
        बड़ी मस्तमौला
        नहीं कुछ फिकर है,
        बड़ी ही निडर हूँ।
        जिधर चाहती हूँ,
        उधर घूमती हूँ,
        मुसाफिर अजब हूँ।
न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

वहीं छायावाद के स्तम्भों में से एक सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" ने बसंत पर बड़ी ही मनोहर रचना "सखि वसंत आया" लिखी है....।

सखि वसन्त आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया

लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर,
बही पवन बंद मंद मंदतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।

वहीं बाबा नागार्जुन ने अपनी कविता "वसंत की अगवानी" में बसंत का मानवीकरण करते हुए बेहद ही खूबसूरत ढंग से वर्णन किया है...।

रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियां
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं…
चूम रही हैं-
कुसुमाकर को!
ऋतुओं के राजाधिराज को !!

इसके अलावा हिंदी साहित्य के "दिनकर" ने भी बसंत पर क्या कुछ लिखा है उसकी भी एक झलक प्रस्तुत है...।

प्रात: जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।
तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।

सुन्दरता को जगी देखकर,
जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;
मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,
निज कविता के दीप जलाऊॅं।

ठोकर मार भाग्य को फोडूँ
जड़ जीवन तज कर उड़ जाऊॅं;
उतरी कभी न भू पर जो छवि,
जग को उसका रूप दिखाऊॅं।

स्वप्न-बीच जो कुछ सुन्दर हो उसे सत्य में व्याप्त करूँ।
और सत्य तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूँ।

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