शादियों की भव्यता में विलुप्त होते संस्कार

भोपाल :
सन्तुष्टो भार्या भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।
यस्मिन्नेव नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥
भारत का नाम लेते ही उसकी समृद्ध संस्कृति, परंपराएँ और धर्म के प्रति अटूट आस्था की छवि उभरती है। अपने ज्ञान और संस्कारों के बल पर भारत ने विश्व गुरु का दर्जा पाया है। इनमें से विवाह भी एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जिसे केवल सामाजिक या कानूनी अनुबंध नहीं, बल्कि जीवनभर निभाए जाने वाले पवित्र बंधन के रूप में देखा जाता है।
भव्यता बनाम संस्कार
समय के साथ विवाह का स्वरूप बदल गया है। आज की शादियाँ दिखावे और धन के प्रदर्शन का माध्यम बन गई हैं। लाखों रुपये केवल निमंत्रण पत्रों, सजावट और भव्य दावतों पर खर्च किए जा रहे हैं। कई बार लोग इस प्रतिस्पर्धा में कर्ज तक ले लेते हैं, जिससे वे आर्थिक संकट में फंस जाते हैं। शादियों में फिजूलखर्ची इतनी बढ़ गई है कि जिस धन से कोई उद्योग स्थापित कर सैकड़ों लोगों को रोजगार दिया जा सकता है, वह एक दिन की चकाचौंध में व्यर्थ चला जाता है। मध्यम वर्ग भी इस प्रवृत्ति में फंसता जा रहा है, जहाँ शादी एक पारिवारिक उत्सव के बजाय सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रदर्शन बन गई है।
शादी में संसाधनों की बर्बादी
भोजन की अत्यधिक बर्बादी, बिजली-पानी का अनावश्यक उपयोग और दिखावटी आयोजनों ने शादियों को असंवेदनशील बना दिया है। लोग खाने की थाली में कई व्यंजन परोसते हैं, लेकिन अधिकांश प्लेटें आधी भरी रह जाती हैं। इस के बीच हम यह भूल जाते हैं कि हम अपने ही समाज के जरूरतमंदों के अधिकार का हनन कर रहे हैं।
संस्कारों से भटकता विवाह समारोह
पहले विवाह पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों को सहेजने का अवसर होता था, लेकिन अब यह मनोरंजन कार्यक्रम जैसा बन चुका है। स्टेज पर घंटों फोटो-शूट और फूहड़ संगीत समारोहों के कारण मेहमान नवदम्पति से आशीर्वाद देने से भी वंचित रह जाते हैं। ऐसे आयोजनों में रिश्तों की आत्मीयता कहीं खो जाती है और अंत में चर्चा केवल आलोचनाओं तक सीमित रह जाती है।
संस्कृति की ओर लौटने की आवश्यकता
कोरोना काल ने हमें सिखाया था कि सादगी भरे विवाह भी संभव हैं। उस समय सीमित संसाधनों में भी शादियाँ हुईं, जिनमें केवल आवश्यक रीति-रिवाजों पर ध्यान दिया गया। लेकिन जैसे ही परिस्थितियाँ सामान्य हुईं, लोग फिर से दिखावे की दौड़ में शामिल हो गए। हमें समझना होगा कि विवाह केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो परिवारों का भी मिलन होता है। हिंदू धर्म में विवाह को सात जन्मों का बंधन माना गया है, जहाँ प्रेम, विश्वास और त्याग की बुनियाद पर गृहस्थ जीवन की शुरुआत होती है। यदि हम अपनी अगली पीढ़ी को सही संस्कार देना चाहते हैं, तो हमें इस दिखावे से दूर होकर संस्कृति और परंपराओं को फिर से अपनाना होगा। आज समय की माँग है कि हम अपनी जड़ों की ओर लौटें और विवाह को फिर से एक पवित्र संस्कार के रूप में स्थापित करें। अनावश्यक खर्चों को सीमित कर नवदम्पति को आर्थिक संबल देना अधिक सार्थक होगा। इससे समाज में संतुलन बना रहेगा और संसाधनों की बर्बादी भी रुकेगी। यदि हमें अपनी संस्कृति को जीवित रखना है, तो विवाह के मूल्यों को समझकर उसे सरल, पारंपरिक और अर्थपूर्ण बनाना होगा। यही हमारी अगली पीढ़ी को सही दिशा देने का सबसे श्रेष्ठ तरीका होगा।
रिपोर्टर : चंद्रकांत पुजारी
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