उर्मिला — त्याग, मौन और आंतरिक तपस्या का अदृश्य महाकाव्य

बिहार : रामायण में जब भी वनवास की चर्चा होती है, हमारे मन में राम, सीता और लक्ष्मण का चित्र उभर आता है। चौदह वर्षों का कठिन वनजीवन, ऋषियों का संग, राक्षसों से संघर्ष और अंततः धर्म की स्थापना—यह सब कथा के केंद्र में है। परंतु इसी कथा के किनारे, लगभग मौन में, एक ऐसा वनवास भी घटित होता है जो बाह्य नहीं, आंतरिक है; जो वनों में नहीं, महलों में जिया गया; और जो दृश्य नहीं, बल्कि अनुभूत है—यह है उर्मिला का वनवास।

उर्मिला मिथिला की राजकुमारी थीं, सीता की छोटी बहन और लक्ष्मण की पत्नी। विवाह के कुछ ही समय बाद जब राम को चौदह वर्ष का वनवास मिला, लक्ष्मण ने उनके साथ जाने का निर्णय लिया। यह निर्णय धर्म और कर्तव्य की दृष्टि से महान था, किंतु उसी क्षण उर्मिला के जीवन में एक ऐसा अंधकार उतर आया, जिसकी चर्चा बहुत कम होती है। लक्ष्मण के साथ वन में जाने का अवसर उन्हें नहीं मिला; न ही उनसे यह पूछा गया कि वे इस त्याग के लिए तैयार हैं या नहीं। वे महल में रह गईं—पर महल उनके लिए कारागार बन गया।
उर्मिला का वनवास बाह्य नहीं, आंतरिक था। चार दीवारों के भीतर रहते हुए भी उनका जीवन विरक्ति, संयम और प्रतीक्षा का पर्याय बन गया। जहाँ सीता ने वन की कठोरता को सहा, वहीं उर्मिला ने वियोग की आग में स्वयं को तपाया। लक्ष्मण वन में राम-सीता की सेवा कर रहे थे, और उर्मिला नगर में रहकर अपने मन की सेवा—अपने दुख, अपने अकेलेपन और अपनी इच्छाओं को मौन साधना में बदल रही थीं।

यहाँ उर्मिला का त्याग और भी गहन हो जाता है। लक्ष्मण चौदह वर्षों तक निद्रा का त्याग करते हैं, यह बात प्रसिद्ध है; किंतु उस त्याग की शक्ति कहाँ से आई? कई विद्वानों का मत है कि लक्ष्मण की निद्रा उर्मिला ने अपने हिस्से में ले ली। यह प्रतीकात्मक तथ्य उर्मिला के बलिदान को अदृश्य किंतु विराट बना देता है। उन्होंने स्वयं को मिटाकर अपने पति के कर्तव्य को संभव बनाया।
उर्मिला की पीड़ा इसलिए भी अधिक मार्मिक है क्योंकि उनका त्याग अघोषित रहा। राम के वनवास पर पूरा अयोध्या रोया, सीता के दुख पर इतिहास ने आँसू बहाए, लक्ष्मण की सेवा की प्रशंसा हुई—पर उर्मिला के मौन का कोई उत्सव नहीं मनाया गया। वे न तो वीरांगना कहलाईं, न पतिव्रता की मूर्ति; वे बस प्रतीक्षा करती रहीं। यह समाज की उस दृष्टि को उजागर करता है, जो दिखने वाले त्याग को महिमामंडित करता है, पर मौन सहनशीलता को सहज मानकर अनदेखा कर देता है।
उर्मिला, मिथिला की राजकुमारी, लक्ष्मण की पत्नी, राम की अनुजा-वधू—इन परिचयों के आगे उसका व्यक्तित्व अक्सर धुंधला कर दिया गया। जबकि सच्चाई यह है कि उर्मिला का त्याग, रामायण के सबसे गहरे और सबसे अनकहे त्यागों में से एक है।
वनवास का नया अर्थ : बाहर नहीं, भीतर
सामान्यतः वनवास का अर्थ है—नगर, सुख-सुविधा और संबंधों से दूर जाकर वन में निवास करना। किंतु उर्मिला का वनवास इस परिभाषा को तोड़ता है।
लक्ष्मण राम के साथ वन जाते हैं। वे धर्म की रक्षा के लिए, भ्रातृभक्ति के लिए, कर्तव्य के लिए निकलते हैं। पर उर्मिला को कोई विकल्प नहीं दिया जाता—न साथ जाने का, न रोकने का।
उर्मिला अयोध्या में रहती हैं, राजमहल में, पर उनका मन, उनका जीवन, उनका अस्तित्व—सब वन में चला जाता है।
यह शरीर का नहीं, आत्मा का वनवास है।
जैसे कोई दीपक घर के भीतर रखा हो, पर उसकी लौ बाहर अंधेरे से लड़ रही हो—वह सुरक्षित दिखता है, पर भीतर-ही-भीतर जल रहा होता है। उर्मिला भी वैसी ही दीपशिखा हैं—महल में रहकर वन का अंधकार झेलती हुई।
2. त्याग जो घोषित नहीं हुआ
राम, सीता और लक्ष्मण के वनगमन को समाज ने देखा, समझा, सराहा। पर उर्मिला का त्याग न तो देखा गया, न पूछा गया।
त्याग का एक रूप वह होता है जिसे समाज सम्मान देता है—और दूसरा वह, जिसे समाज सहज मानकर भूल जाता है।
उर्मिला का त्याग इसी दूसरी श्रेणी में आता है।
उन्होंने पति को रोका नहीं अपने दुख को राम-सीता के धर्म से बड़ा नहीं माना अपने उर्मिला का वनवास रामायण का एक उपेक्षित अध्याय नहीं, बल्कि उसकी आत्मा है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि महानता केवल कर्म में नहीं, सहनशील मौन में भी बसती है। उर्मिला का वनवास जंगल में नहीं था, फिर भी वह सबसे कठिन था—क्योंकि वह मन के भीतर घटित हो रहा था।अधिकारों की घोषणा नहीं की यह मौन ही उनका सबसे बड़ा त्याग है।
जैसे किसी यज्ञ में आहुति देने वाला व्यक्ति पीछे खड़ा रहता है, और अग्नि व पुरोहित सामने दिखते हैं। यज्ञ सफल होता है, पर आहुति देने वाले का नाम कहीं नहीं लिखा जाता। उर्मिला वही अदृश्य आहुति हैं।
3. नारी का धैर्य या समाज की अपेक्षा?
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है—क्या उर्मिला का मौन उनका स्वैच्छिक धैर्य था या समाज की अपेक्षा?संभवतः दोनों।
रामायणकालीन समाज में नारी से त्याग की अपेक्षा थी। पर उर्मिला केवल अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं करतीं, वे उन्हें अर्थ देती हैं।
वे दुख को शिकायत नहीं बनातीं, बल्कि साधना बना लेती हैं।उनका मौन कमजोर नहीं, बल्कि अत्यंत सशक्त है।
वे लक्ष्मण से यह नहीं कहतीं—“मुझे क्यों छोड़ा?”
वे स्वयं से कहती हैं—“यदि मेरे त्याग से धर्म की रक्षा होती है, तो यह भी मेरा कर्तव्य है।”
4. उर्मिला और लक्ष्मण : दो प्रकार का वनवास
लक्ष्मण का वनवास सक्रिय है—वे जागते हैं रक्षा करते हैं शस्त्र उठाते हैं
उर्मिला का वनवास निष्क्रिय  है, पर वह भीतर से कहीं अधिक कठिन है—वे प्रतीक्षा करती है स्मृतियों के साथ जीती हैं हर दिन विरह का सामना करती हैं
लक्ष्मण चौदह वर्षों तक नहीं सोते—यह प्रसिद्ध है।
पर उर्मिला भी चौदह वर्षों तक चैन से नहीं जीतीं—यह कम कहा गया है।
यदि लक्ष्मण सीमा पर खड़ा सैनिक है, तो उर्मिला घर में बैठी वह माँ है, जिसकी हर साँस बेटे की सलामती पर टिकी है। दोनों का संघर्ष अलग है, पर समान रूप से कठिन।
5. आधुनिक संदर्भ में उर्मिला
आज के संदर्भ में उर्मिला उन असंख्य स्त्रियों का प्रतीक हैं, जो परिवार, समाज और संबंधों के लिए अपने सपनों को स्थगित कर देती हैं—बिना श्रेय, बिना धन्यवाद के। उनका वनवास हमें प्रश्न पूछने को विवश करता है: क्या हम केवल दिखने वाले बलिदान को ही महत्व देते रहेंगे? क्या मौन त्याग का कोई स्थान हमारे मूल्यबोध में है?
आज की दुनिया में उर्मिला हर उस व्यक्ति में दिखाई देती हैं—जो अपने सपनों को परिवार के लिए स्थगित करता है
जो दूसरों की सफलता के पीछे अदृश्य श्रम देता है जो साथ होते हुए भी अकेलापन जीता है
उर्मिला केवल पौराणिक पात्र नहीं, बल्कि संवेदनशील मानव चेतना का प्रतीक हैं।
वे सिखाती हैं कि हर संघर्ष शोर नहीं करता, हर त्याग मंच नहीं 
उर्मिला का वनवास रामायण का एक उपेक्षित अध्याय नहीं, बल्कि उसकी आत्मा है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि महानता केवल कर्म में नहीं, सहनशील मौन में भी बसती है। उर्मिला का वनवास जंगल में नहीं था, फिर भी वह सबसे कठिन था—क्योंकि वह मन के भीतर घटित हो रहा था।
उर्मिला का वनवास हमें यह सिखाता है कि धर्म केवल रणभूमि में नहीं, प्रतीक्षा कक्षों में भी निभाया जाता है।
त्याग केवल वनों में नहीं, महलों के सन्नाटे में भी होता है।यदि रामायण को केवल वीरता का ग्रंथ माना जाए, तो वह अधूरी है।
उसे पूर्ण बनाता है उर्मिला का मौन, उनका धैर्य, और उनका अदृश्य वनवास।
क्योंकि इतिहास उन्हीं को याद रखता है जो बोल
पर संस्कृति उन्हीं से बनती है जो चुपचाप सहते रहे।

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