अरावली पहाड़ विवाद : विकास, पर्यावरण और नीति में टकराव

आलेख-
बिहार :
अरावली पर्वत श्रृंखला भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक है। लगभग 1500 किलोमीटर में फैली यह श्रृंखला गुजरात से लेकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक विस्तृत है। यह केवल एक भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि उत्तर-पश्चिम भारत की जलवायु, जैव-विविधता, भूजल संरक्षण और पारिस्थितिक संतुलन की रीढ़ है। किंतु वर्तमान समय में अरावली पहाड़ विवाद विकास बनाम पर्यावरण का एक ज्वलंत उदाहरण बन चुका है।

1. अरावली का पर्यावरणीय महत्व
अरावली पहाड़ियां थार मरुस्थल के फैलाव को रोकने में प्राकृतिक दीवार का कार्य करती हैं। यदि अरावली कमजोर होती है, तो रेगिस्तान का विस्तार हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक हो सकता है।
इसके अतिरिक्त—
ये पहाड़ियां वर्षा जल संचयन में सहायक हैं
भूजल स्तर बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं
अनेक वन्य जीवों और वनस्पतियों का आश्रय हैं
दिल्ली-एनसीआर के लिए ग्रीन लंग (हरित फेफड़े) के समान हैं
इसी कारण पर्यावरणविद अरावली को केवल “पहाड़” नहीं, बल्कि जीवन रक्षक प्रणाली मानते हैं।
2. विवाद की पृष्ठभूमि
अरावली विवाद मुख्यतः तीन कारणों से उत्पन्न हुआ—
खनन गतिविधियाँ
रियल एस्टेट और शहरी विस्तार
नीतिगत अस्पष्टता और प्रशासनिक ढिलाई
राजस्थान और हरियाणा में लंबे समय तक अरावली क्षेत्र में पत्थर, ग्रेनाइट और अन्य खनिजों का अवैध एवं अर्ध-कानूनी खनन होता रहा। इससे पहाड़ों का बड़ा हिस्सा नष्ट हुआ, जंगल उजड़े और जल स्रोत सूखते चले गए।
3. न्यायपालिका की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने कई बार अरावली क्षेत्र में खनन और निर्माण गतिविधियों पर रोक लगाई।
2002 में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के अरावली क्षेत्र में खनन पर प्रतिबंध लगाया
NGT ने कई परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी न मिलने पर रोका
हालाँकि, इसके बावजूद कानूनी परिभाषाओं की अस्पष्टता—जैसे कि “वन क्षेत्र” की परिभाषा—का लाभ उठाकर कई परियोजनाएं आगे बढ़ती रहीं।
4. हालिया विवाद और नीतिगत प्रश्न
वर्तमान में विवाद तब और गहरा गया जब कुछ राज्य सरकारों ने अरावली क्षेत्र के कुछ हिस्सों को वन श्रेणी से बाहर करने या निर्माण गतिविधियों को वैध बनाने के प्रयास किए।
सरकार का तर्क है—
इससे आर्थिक विकास होगा
आवास और बुनियादी ढांचे की मांग पूरी होगी
रोजगार के अवसर बढ़ेंगे
वहीं पर्यावरणविदों का कहना है कि—
अल्पकालिक आर्थिक लाभ के लिए दीर्घकालिक पर्यावरणीय क्षति को अनदेखा किया जा रहा है
दिल्ली-एनसीआर पहले ही वायु प्रदूषण और जल संकट से जूझ रहा है
अरावली का विनाश आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय है
5. विकास बनाम पर्यावरण : मूल टकराव
अरावली विवाद वास्तव में उस बड़े प्रश्न को उजागर करता है—
क्या विकास का अर्थ केवल कंक्रीट और सड़कें है?
यदि विकास प्राकृतिक संसाधनों के विनाश पर आधारित होगा, तो वह टिकाऊ नहीं हो सकता। अरावली को नष्ट कर बने शहर कुछ वर्षों बाद स्वयं जल, वायु और जीवन संकट का सामना करेंगे।
6. सामाजिक और नैतिक आयाम
यह विवाद केवल सरकार और पर्यावरणविदों तक सीमित नहीं है।
स्थानीय समुदायों की आजीविका
आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों का अस्तित्व
भावी पीढ़ियों का पर्यावरणीय अधिकार
इन सभी प्रश्नों को भी साथ में देखना होगा। अरावली का संरक्षण एक नैतिक दायित्व भी है।
7. समाधान की दिशा
अरावली पहाड़ विवाद का समाधान टकराव में नहीं, संतुलन में है—
स्पष्ट और सख्त पर्यावरणीय कानून
अवैध खनन पर पूर्ण रोक
इको-सेंसिटिव ज़ोन की प्रभावी घोषणा
विकास के लिए पर्यावरण-अनुकूल मॉडल
जनभागीदारी और पारदर्शिता
निष्कर्ष
अरावली पहाड़ विवाद हमारे समय की चेतावनी है। यह हमें बताता है कि यदि हमने प्रकृति को केवल संसाधन समझा, तो एक दिन वह प्रतिरोध करेगी। अरावली का संरक्षण केवल पर्यावरण का प्रश्न नहीं, बल्कि जीवन, भविष्य और सभ्यता की निरंतरता का प्रश्न है।
आज लिया गया निर्णय आने वाली पीढ़ियों के लिए इतिहास बनेगा—या तो संरक्षण का उदाहरण, या विनाश की कहानी।

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