PK की जन सुराज बनाम लालू-नीतीश का दशकों पुराना मॉडल

1990 से अब तक बिहार की राजनीति जातीय अस्मिता और सामाजिक न्याय के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लेकिन 2025 का चुनाव कुछ नया कह रहा है...बेरोजगारी, पलायन और विकास की बातें अचानक चर्चा में हैं। और इन सबके केंद्र में हैं प्रशांत किशोर। क्या यह बदलाव बिहार की राजनीति की दिशा बदलने वाला है? या सिर्फ एक और प्रयोग?

1990 के दशक में मंडल राजनीति के उदय के साथ बिहार की राजनीति सामाजिक न्याय और जातीय पहचान के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई। यही कारण है कि बीजेपी जैसी हिंदुत्व आधारित पार्टी को भी यहां अपनी रणनीति में जातीय संतुलन बैठाना पड़ा। 2025 में, बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी सिर्फ 40% यानी 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, बाकी 60% सीटें उसने उन सहयोगियों के लिए छोड़ी हैं जो सामाजिक न्याय और जातीय समीकरण को प्राथमिकता देते हैं। यही वजह है कि गिरिराज सिंह या हरिभूषण ठाकुर बचौल जैसे नेता हाशिए पर हैं, और जातीय संतुलन बिठाने वाले चेहरों को आगे किया गया है। कांग्रेस भी सामाजिक न्याय की लाइन पर चल रही है, और ऐसे में प्रशांत किशोर का उदय एक राजनीतिक विसंगति जैसा प्रतीत हो रहा है, लेकिन यह विसंगति नहीं, शायद एक नए दौर की शुरुआत है।

प्रशांत किशोर क्या मुद्दे उठा रहे हैं?

प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की राजनीति बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, औद्योगिक विकास और भ्रष्टाचार जैसे विकासात्मक मुद्दों पर केंद्रित है, जो कि पिछले 2-3 दशकों से चुनावी विमर्श से लगभग गायब थे। प्रश्न यह है कि क्या यह बदलाव प्रशांत किशोर की रणनीति की वजह से है या बिहार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति अब विचारधारा आधारित राजनीति को बर्दाश्त करने के कगार पर पहुंच चुकी है? बिहार में डिस्ट्रीब्यूटिव जस्टिस यानी वितरित न्याय सिर्फ सरकारी नौकरी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व तक सीमित रह गया। उद्योग और उत्पादन आधारित विकास न होने की वजह से सामाजिक न्याय एक प्रतीकात्मक विमर्श बनकर रह गया। लालू-नीतीश युग में भी भूमि सुधार, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद जैसे मुद्दों पर काम नहीं हो सका, जिससे सामाजिक न्याय की राजनीति जनमानस में थकावट का कारण बनती गई।

प्रशांत किशोर ने 2014 में नरेंद्र मोदी के लिए चुनावी रणनीति से अपनी सियासी पारी शुरू की। इसके बाद वे हर विचारधारा की पार्टी के लिए काम करते रहे, कांग्रेस, जदयू, टीएमसी आदि। उन्होंने चुनाव को व्यक्ति-केंद्रित और इवेंट-ओरिएंटेड बना दिया। अब वही प्रशांत किशोर बिहार में खुद को राजनीतिक विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं और इस बार वे एक ऐसी रणनीति के साथ मैदान में हैं जो जनता की सांकेतिक थकावट को संरचनात्मक उम्मीद में बदलने का दावा करती है। 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव उन चौराहों में खड़ा है जहां:

सामाजिक न्याय की पुरानी विचारधारा थकी हुई लगती है

लेकिन नई कोई वैकल्पिक विचारधारा मौजूद नहीं है

ऐसे में राजनीति व्यक्ति-केंद्रित और विचारधारा-शून्य होती जा रही है

प्रशांत किशोर ने तेजस्वी यादव और सम्राट चौधरी की शैक्षणिक योग्यता, भ्रष्टाचार, और नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाकर राजनीतिक विमर्श को नए फ्रेम में खड़ा किया है। उनके प्रत्याशी भी ऐसे "नए चेहरे" हैं जिन पर कोई राजनीतिक बोझ नहीं है, यह एक तरह से सिविल सोसाइटी बनाम राजनीतिक परिवारवाद का टकराव है।

बिहार चुनाव 2025 न सिर्फ सत्ता परिवर्तन का बल्कि राजनीति के फ्रेमवर्क के बदलाव का संकेत भी हो सकता है। प्रशांत किशोर क्या इस संक्रमण को दिशा दे पाएंगे या विचारधारा शून्यता की इस दौड़ में सिर्फ एक और चेहरा बनकर रह जाएंगे? यह तय करेगा आने वाला वक्त और जनता की समझदारी।

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