प्रसिद्ध सूफ़ी कवि बुल्लेशाह की रचना, रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई

बुल्लेशाह एक प्रसिद्ध सूफ़ी कवि और संत थे, जिनका जन्म 1680 के आसपास पंजाब के तत्कालीन लाहौर (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनका असली नाम 'अली मुहम्मद' था, लेकिन उन्हें बुल्लेशाह के नाम से अधिक जाना जाता है। उनकी कविता और शायरी मुख्यतः प्रेम, तात्त्विकता और परमात्मा के प्रति समर्पण पर आधारित होती थी। उन्होंने सूफ़ीवाद के गहरे संदेशों को अपनी कविता में सरल और प्रभावी तरीके से व्यक्त किया। बुल्लेशाह ने अपने लेखन में समाज में व्याप्त अज्ञानता, पाखंड और धार्मिक कट्टरता पर तीव्र आलोचना की और प्रेम, करुणा और आत्मज्ञान की आवश्यकता को बताया। उनका मानना था कि आत्मा की स्वतंत्रता और परमात्मा से मिलन केवल आत्म-ज्ञान और प्रेम के माध्यम से संभव है, न कि बाहरी धार्मिक अनुष्ठानों और आस्थाओं के माध्यम से। बुल्लेशाह की कविताएँ और काव्य रचनाएँ पंजाबी भाषा में थीं और उनमें अक्सर गहरे तात्त्विक संदेश होते थे। वे हजरत शाह बुर्खी और उनके शिष्य मियाँ मीर से प्रभावित थे, और उनकी रचनाओं में सूफ़ी प्रेम और दर्शन की झलक मिलती है। उनकी कविताएँ आज भी लोगों के दिलों में गूंजती हैं और उन्हें एक महान सूफ़ी कवि के रूप में याद किया जाता है। उनकी कविताओं में प्रेम, समानता और मानवता का संदेश दिया जाता है।

रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई
सद्दो मैनूं धीदो रांझा हीर ना आखो कोई।

राँझा मैं विच मैं राँझे विच गैर ख़िआल ना कोई,
मैं नहीं उह आप है आपणी आप करे दिलजोई।

जो कुझ साडे अंदर वस्से जात असाडी होई,
जिस दे नाल मैं निहुँ लगाइआ ओहउ जैसी होई।

चिट्टी चादर लाह सुट्ट कुड़ीए पहिण फ़कीरां लोई,
चिट्टी चादर दाग लगेसी लोई दाग़ न कोई।

तखत हजारे लै चल बुल्लिआ सिआलीं मिले ना ढोई,
रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई।

हथ खूंडी मेरे अग्गे मंगू मोढे भूरा लोई,
बुल्ला हीर सलेटी वेखो किथे जा खलोई।

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