शहर का सूनापन

शहर — जहाँ रोशनी कभी बुझती नहीं, सड़कों पर गाड़ियों की कतारें थमती नहीं, और भीड़ में भी इंसान अक्सर अकेला रह जाता है। दूसरी तरफ गाँव — जहाँ शायद साधन कम हों, लेकिन रिश्तों की गर्माहट और प्रकृति की गुनगुनाहट हर कोने में महसूस होती है। आज के समय में, जब शहरीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है, “शहर का सूनापन” सिर्फ एक साहित्यिक विषय नहीं, बल्कि एक सामाजिक सच्चाई है।
शहर में प्रवेश करते ही ऊँची-ऊँची इमारतें, चमचमाती सड़कें और विज्ञापनों के बड़े-बड़े बोर्ड आपका स्वागत करते हैं। यहाँ हर किसी की चाल तेज़ है, नज़रें व्यस्त हैं और समय सबसे महँगा संसाधन बन चुका है।
फिर भी, इस शोर-शराबे के पीछे एक अजीब सन्नाटा छिपा है — ऐसा सन्नाटा जो तब महसूस होता है जब कोई अपने फ्लैट में अकेला बैठा हो, खिड़की से बाहर देख रहा हो और सामने दिख रही हजारों खिड़कियों में से शायद ही कोई खुली हो।
शहर में भीड़ है, लेकिन परिचय कम। मेट्रो में एक-दूसरे के कंधे से कंधा सटाकर खड़े लोग भी एक-दूसरे से आँख मिलाने से बचते हैं। पड़ोसी का नाम भी महीनों बाद पता चलता है, और मदद माँगने से पहले दस बार सोचना पड़ता है।
यहाँ दोस्ती अक्सर समय की कमी और काम के दबाव में सीमित हो जाती है। डिजिटल स्क्रीन पर “ऑनलाइन” बहुत लोग हैं, लेकिन असल ज़िंदगी में मिलने वाला शायद ही कोई हो।
इसके विपरीत गाँव का जीवन धीमा है, लेकिन इसमें अपनापन है। वहाँ लोग एक-दूसरे को नाम से जानते हैं, रिश्तेदार हों या पड़ोसी, सबके सुख-दुख में शामिल होते हैं।
सुबह की ताज़ी हवा, खेतों में काम करती महिलाएँ, पेड़ों पर चहचहाते पक्षी — यह सब मिलकर एक जीवंत माहौल बनाते हैं। गाँव का सन्नाटा भी अलग होता है — वहाँ का सन्नाटा प्राकृतिक है, जिसमें डर नहीं, शांति है। गाँव में कोई बीमार हो जाए तो पूरा मोहल्ला हाल-चाल लेने आ जाता है, जबकि शहर में यह खबर भी पड़ोसी को शायद महीनों बाद मिले।
गाँव में एक चाय की दुकान पर बैठकर आधा दिन बीत सकता है, लेकिन शहर में एक कॉफी शॉप में बैठना भी समय-सारणी में फिट करना पड़ता है।
“शहर का सूनापन” आधुनिक जीवन की एक सच्चाई है, जहाँ भीड़ और सुविधाओं के बीच भी इंसान अक्सर अकेला महसूस करता है। गाँव में साधन कम हैं, लेकिन रिश्तों की गर्माहट और प्रकृति की निकटता मानसिक संतोष देती है। शहर का जीवन तेज़, प्रतिस्पर्धी और कभी-कभी भावनात्मक रूप से सूखा होता है, जबकि गाँव का जीवन धीमा लेकिन अपनापन से भरा होता है। समाधान के रूप में, शहरों में सामुदायिक जुड़ाव, सांस्कृतिक गतिविधियाँ और व्यक्तिगत समय की प्राथमिकता जरूरी है, ताकि यह सन्नाटा केवल इमारतों तक सीमित रहे, इंसानों तक नहीं पहुँचे।

 

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