कैसे बचाए भारत अपने छोटे किसानों को विदेशी कृषि उत्पादों के दबाव से?

भारत एक ऐसा देश है जहाँ खेती-बाड़ी हमारी संस्कृति और अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है। लगभग 44 प्रतिशत लोग खेती से अपना जीवन चलाते हैं। हमारे किसान दिन-रात मेहनत करके देश का पेट भरते हैं, लेकिन उनकी जिंदगी आसान नहीं है। उनकी सबसे बड़ी चुनौती है विदेशी कृषि और डेयरी उत्पादों का आयात, खासकर अमेरिका जैसे देशों से।

अमेरिका जैसी विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडी देती है, जिससे उनके कृषि उत्पाद बहुत सस्ते दामों पर बाजार में आते हैं। अगर ये सस्ते विदेशी उत्पाद बिना रोक-टोक के हमारे बाजार में आ गए, तो हमारे किसानों को बड़ा नुकसान होगा। 2022 के आंकड़ों के अनुसार, भारत ने अमेरिका से आने वाले खाद्य उत्पादों पर 40.2 प्रतिशत और दुनिया भर से आयात होने वाले खाद्य उत्पादों पर औसतन 49 प्रतिशत आयात शुल्क लगाया है। यह आयात शुल्क इसलिए जरूरी है ताकि विदेशी उत्पादों की कीमतें हमारे बाजार में अधिक रहें और हमारे किसानों के उत्पादों को प्रतिस्पर्धा में बने रहने का मौका मिले।

अमेरिका में एक किसान को औसतन 61,000 डॉलर की सब्सिडी मिलती है, जबकि हमारे किसान को मात्र 282 डॉलर। इसलिए अमेरिका के मक्का, सोयाबीन, गेहूं और डेयरी उत्पाद बहुत सस्ते दामों पर बिकते हैं, जिससे हमारे किसानों के लिए मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है। भारत में अधिकतर किसान छोटे और सीमांत हैं जिनके पास औसतन सिर्फ 1.08 हेक्टेयर जमीन होती है, जबकि अमेरिका में औसत खेती की जमीन लगभग 187 हेक्टेयर है। हमारी खेती में अधिक मेहनत लगती है और उत्पादन कम होने के कारण लागत ज्यादा होती है।

अगर सस्ते विदेशी उत्पाद बाजार में आ गए, तो स्थानीय उत्पादों की कीमतें गिरेंगी, जिससे किसानों की आय कम होगी और उनकी स्थिति और खराब हो जाएगी। यह देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी खतरा है क्योंकि भारत अपनी जरूरतों के लिए अपने किसानों पर निर्भर है। साथ ही, अमेरिका से आने वाले कुछ उत्पाद भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ भी हो सकते हैं, जैसे मांस के मसाले का इस्तेमाल। जीएम फसलों को लेकर भी भारत का सख्त रुख है क्योंकि ये स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए खतरनाक मानी जाती हैं। यदि ये फसलें भारत की फसलों के साथ मिल गईं तो जैव विविधता को नुकसान हो सकता है।

भारत और अमेरिका के बीच कई बार व्यापार समझौतों पर चर्चा हुई है, लेकिन कृषि और डेयरी उत्पादों को लेकर सहमति नहीं बन पाई। अमेरिका चाहता है कि भारत अपने बाजार को उसके दूध पाउडर, चीज़, सेब, अखरोट, मक्का और सोयाबीन के लिए खोले और आयात शुल्क कम करे, साथ ही जीएम फसलों के नियम ढीले करे। लेकिन भारत इसे स्वीकार नहीं करता क्योंकि इससे करोड़ों छोटे किसानों की आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। भारत का डेयरी क्षेत्र ज्यादातर असंगठित है और अमूल जैसे सहकारी संगठन किसानों की कमाई का सहारा हैं, जो विदेशी उत्पादों के मुकाबले टिक नहीं पाएंगे।

दूसरे देशों के अनुभव भी भारत को सावधान करते हैं। मैक्सिको में नाफ्टा समझौते के बाद सस्ते अमेरिकी उत्पादों के कारण लाखों किसानों को खेती छोड़नी पड़ी। चिली और दक्षिण कोरिया में भी अमेरिकी उत्पादों के दबाव से स्थानीय किसान कमजोर हुए। भारत नहीं चाहता कि ऐसा यहां भी हो।

सरकार का स्पष्ट रुख है कि वह अपने किसानों और डेयरी उद्योग को बचाना चाहता है। अमूल और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठन भी विदेशी उत्पादों के बाजार खोलने का विरोध करते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि कुछ अमेरिकी उत्पाद सीमित मात्रा में और साफ लेबलिंग के साथ आ सकते हैं, लेकिन डेयरी और जीएम उत्पादों पर भारत का रुख सख्त रहेगा। भारत अपनी जैविक खाद्य और मसालों को अमेरिका में निर्यात करने की इच्छा रखता है।

कृषि हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। सस्ते आयात से किसानों की आय घटने का खतरा है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर कर सकता है। 2020-21 के किसान आंदोलन ने यह भी साबित किया कि किसानों के हितों की अनदेखी करना सरकार के लिए जोखिम भरा हो सकता है। इसलिए भारत सरकार अमेरिका के साथ व्यापार वार्ता में किसानों को प्राथमिकता दे रही है और आत्मनिर्भर भारत के तहत स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा दे रही है। इससे किसानों की जिंदगी बेहतर होगी, देश की खाद्य सुरक्षा मजबूत होगी और हमारी सांस्कृतिक पहचान भी बनी रहेगी।

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