मृत्यु और भय

मृत्यु जीवन का अपरिहार्य सत्य है, परंतु इसके विचार मात्र से ही मनुष्य भयभीत हो उठता है। यह भय न केवल मृत्यु के अनुभव से जुड़ा होता है, बल्कि उसके बाद की अनिश्चितता, प्रियजनों से वियोग, और अस्तित्व के अंत के भाव से भी उपजता है। मृत्यु का भय मनुष्य के मानसिक, दार्शनिक एवं धार्मिक चिंतन का केंद्रबिंदु रहा है।
मृत्यु कोई दंड नहीं है, न ही कोई दैवी कोप, अपितु यह जीवन चक्र की स्वाभाविक प्रक्रिया है। जन्म जिस क्षण घटित होता है, उसी क्षण मृत्यु का बीज भी बो दिया जाता है। भारतीय दार्शनिक परंपरा में मृत्यु को केवल एक "परिवर्तन" माना गया है, एक अवस्था से दूसरी अवस्था में संक्रमण।
वेदांत, बौद्ध, जैन तथा उपनिषदों में मृत्यु के स्वरूप पर गहन मंथन हुआ है। कठोपनिषद में यम और नचिकेता का संवाद मृत्यु के रहस्य को उजागर करता है, जहाँ मृत्यु को नित्य और आत्मा को अमर बताया गया है।
विभिन्न धर्मों ने मृत्यु के भय को कम करने के लिए पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, मोक्ष आदि अवधारणाएँ विकसित कीं। हिन्दू धर्म में आत्मा को अजर-अमर मानकर पुनर्जन्म की अवधारणा दी गई, जिससे मृत्यु केवल एक शरीर का त्याग बन जाती है। बौद्ध धर्म में "अनित्य" (Impermanence) की शिक्षा दी गई, जो मृत्यु को स्वाभाविक घटना के रूप में स्वीकारने में सहायक होती है।
ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी मृत्यु के बाद जीवन (Afterlife) का विस्तारपूर्वक उल्लेख है, जो व्यक्ति को मृत्यु के भय से परे ईश्वर की शरण में जाने की सांत्वना देता है।
मृत्यु के विचार से मनुष्य अपने जीवन का पुनर्मूल्यांकन करता है। यह भय उसे जागरूक करता है कि जीवन सीमित है, और इसलिए प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना आवश्यक है। टॉल्स्टॉय ने कहा था, "मृत्यु का भय ही जीवन को अर्थ देता है।"
जो व्यक्ति मृत्यु के भय को समझ कर जीवन में करुणा, प्रेम और सच्चाई को अपनाता है, वही वास्तव में मृत्यु के पार जा सकता है।
मृत्यु जीवन का अपरिहार्य सत्य है, परंतु इससे जुड़ा भय मनुष्य के मानसिक, दार्शनिक और धार्मिक चिंतन का मूल रहा है। यह भय केवल शरीर के नष्ट होने का नहीं, बल्कि 'स्व' के अंत और अज्ञात के प्रति आशंका का है। विभिन्न धर्मों ने मृत्यु के भय को कम करने के लिए पुनर्जन्म, मोक्ष, स्वर्ग-नरक जैसी अवधारणाएँ दी हैं। मनोविज्ञान में इसे अस्तित्वगत भय (Existential Fear) माना गया है। आधुनिक विज्ञान मृत्यु को जैविक प्रक्रिया कहता है, परंतु चेतना के प्रश्न पर अभी भी भ्रम बना हुआ है। मृत्यु के भय पर विजय पाने के लिए दार्शनिक स्वीकार्यता और आध्यात्मिक साधना दो प्रभावी मार्ग हैं। मृत्यु का विचार जीवन को अर्थ देता है और मनुष्य को प्रेरित करता है कि वह अपने जीवन को अधिक सार्थक और करुणामय बनाए।
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