जब स्क्रीन बन जाए मालिक: डिजिटल उपनिवेशवाद की चुपचाप बढ़ती जकड़

BY SHAURYA MISHRA 

21वीं सदी में आज़ादी का मतलब सिर्फ राजनीतिक स्वराज नहीं, बल्कि डिजिटल संप्रभुता भी है। लेकिन क्या हम इस क्षेत्र में सचमुच स्वतंत्र हैं? जिस तरह 18वीं-19वीं सदी में व्यापार के नाम पर उपनिवेशवाद पनपा, उसी तरह आज टेक्नोलॉजी के ज़रिए एक नया डिजिटल उपनिवेशवाद हमारे दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है — बल्कि कहें तो हमारे ही फोन में बैठ चुका है।

अदृश्य नियंत्रण की शुरुआत

सोशल मीडिया पर जो आप देख रहे हैं, वह आपकी पसंद नहीं बल्कि एल्गोरिद्म की पसंद होती है। बड़ी टेक कंपनियाँ हमारे व्यवहार, पसंद, भाषा, लोकेशन और सर्च हिस्ट्री के आधार पर तय करती हैं कि हमें क्या देखना चाहिए।
उदाहरण: अगर आप एक बार फिटनेस वीडियो देखते हैं, तो आपका पूरा फीड उसी तरह के कंटेंट से भर जाता है। नतीजा? आपकी सोच धीरे-धीरे उनकी दिशा में ढलने लगती है।

संस्कृति और भाषा पर चोट

डिजिटल उपनिवेशवाद सिर्फ तकनीकी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक हमला भी है। स्थानीय भाषाएं, बोलियां और परंपराएं अब ट्रेंड में नहीं हैं।
उदाहरण: YouTube पर ट्रेंडिंग में बॉलीवुड कम और विदेशी रैप, K-pop और वेस्टर्न व्लॉग्स ज़्यादा दिखते हैं।

नतीजा ये है कि आज भारत का युवा अंग्रेज़ी में रील बनाकर वायरल होना चाहता है, लेकिन उसे अपनी मातृभाषा में बोलने में झिझक होती है।

कौन है असली मालिक?

आपका डेटा — आपके नाम से लेकर चेहरे की पहचान, बैंकिंग व्यवहार, और यहां तक कि नींद की आदतें भी — अमेरिका या चीन की सर्वरों में जमा होती हैं। ये कंपनियां केवल विज्ञापन ही नहीं, आपकी प्राथमिकताओं और भावनाओं को भी बेचती हैं।
यह उपनिवेशवाद बिना हथियार के है, लेकिन इसकी जकड़ उतनी ही गहरी है।

अब क्या विकल्प है?

1. स्वदेशी तकनीक का समर्थन करें: BHIM, ONDC, Koo जैसे भारतीय प्लेटफॉर्म्स को अपनाना शुरू करें।


2. डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा दें: स्कूलों और कॉलेजों में डेटा और एल्गोरिद्म की समझ को पाठ्यक्रम में शामिल करना ज़रूरी है।


3. नीतियों की सख्ती: डेटा लोकलाइजेशन और डिजिटल अधिकारों को लेकर कठोर और स्पष्ट कानून ज़रूरी हैं।


निष्कर्ष

डिजिटल उपनिवेशवाद वह धीमा ज़हर है जो हमारी सोच, भाषा और पहचान को धीरे-धीरे मिटा रहा है। आज की सबसे बड़ी लड़ाई मोबाइल स्क्रीन के उस पार लड़ी जा रही है — और हमें तय करना है कि हम इस लड़ाई में यूज़र बनेंगे या गुलाम।

अब वक़्त है जागने का। तकनीक को अपनाइए, लेकिन आँख मूंदकर नहीं — सोच-समझकर।

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