जब दिलीप कुमार ने इंदिरा गांधी को दिया था शालीन जवाब, नेहरू बोले – "मैं होता तो इतना संयम नहीं रख पाता"

भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई किस्से ऐसे हैं जो वक्त के साथ धुंधले नहीं हुए, बल्कि और भी चमक उठे। ऐसा ही एक किस्सा जुड़ा है सिनेमा के ‘ट्रेजेडी किंग’ दिलीप कुमार से, जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आलोचना का जवाब न केवल बेबाकी से दिया, बल्कि इतनी गरिमा और आत्मविश्वास के साथ कि खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू मुस्कुरा उठे।
सिनेमा की आलोचना और दिलीप कुमार की मौजूदगी
यह किस्सा उस दौर का है जब दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के सबसे चमकते सितारे थे और सामाजिक मुद्दों पर खुलकर बोलने के लिए भी जाने जाते थे। एक बार वे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ नाश्ते पर बैठे थे। वहीं मौजूद थीं उनकी बेटी इंदिरा गांधी, जो उस समय सक्रिय राजनीति में तेजी से उभर रही थीं।
बातों-बातों में इंदिरा गांधी ने भारतीय फिल्मों की गुणवत्ता पर सवाल उठा दिए। उन्होंने कहा,
"आप लोग कैसी फिल्में बनाते हैं? मैं लंदन और पेरिस में जो थिएटर और फिल्में देख चुकी हूं, उनकी तुलना में भारतीय सिनेमा में कोई गहराई नहीं है।"
उनकी बातों में तीखी आलोचना थी और विदेशी सिनेमा की प्रशंसा भी।
दिलीप कुमार का सधा हुआ जवाब
इंदिरा गांधी की बातों को सुनकर कमरे में सन्नाटा छा गया। लेकिन दिलीप कुमार शांत रहे। करीब 15 मिनट बाद, उन्होंने बेहद संयमित और आत्मविश्वास भरे लहजे में जवाब दिया:
"आपकी बातों में शायद कुछ सच्चाई हो, लेकिन अब तक आपने जो कुछ कहा, उसमें एक भी शब्द हिंदुस्तानी नहीं था।"
कमरे में मौजूद सभी लोग चौंक गए। दरअसल, इंदिरा गांधी पूरी बातचीत अंग्रेज़ी में कर रही थीं, और दिलीप कुमार ने इसी संकेत के ज़रिए सांस्कृतिक जुड़ाव की बात उठाई थी।
वो यहीं नहीं रुके। उन्होंने आगे कहा:
"हमारी फिल्में खराब नहीं हैं। असल दिक्कत तो हमारे देश की सड़कों की है, हमारी शिक्षा प्रणाली की है, कृषि व्यवस्था की है। जब तक मूलभूत समस्याओं को नहीं सुलझाया जाएगा, तब तक सिनेमा को दोष देना अनुचित होगा।"
नेहरू की प्रतिक्रिया – एक मुस्कान और समर्थन
दिलीप कुमार की इस सोचपरक प्रतिक्रिया से पंडित नेहरू प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा: "अगर मैं तुम्हारी जगह होता, तो इतनी शांति से जवाब नहीं दे पाता।"
यह प्रतिक्रिया एक प्रमाण थी कि कैसे एक कलाकार भी समाज की गहराइयों को समझता है और सशक्त संवाद से विचारों को दिशा दे सकता है।
एक अभिनेता से कहीं अधिक
दिलीप कुमार न केवल महान अभिनेता थे, बल्कि वे भारत की सांस्कृतिक चेतना के भी संवाहक थे। उनकी फिल्मों में सिर्फ अभिनय नहीं, सामाजिक संदेश भी झलकता था। उन्होंने मुगल-ए-आजम, क्रांति, कर्मा और सौदागर जैसी फिल्में कीं, जो आज भी सिनेमाई धरोहर का हिस्सा हैं।
यह किस्सा आज भी प्रासंगिक है – न केवल इसलिए कि इसमें भारतीय सिनेमा के एक महान अभिनेता की गरिमामयी उपस्थिति है, बल्कि इसलिए भी कि यह सिखाता है: कभी-कभी जवाब देने का तरीका ही सबसे बड़ी विजय होती है। दिलीप कुमार का यह वाकया दर्शाता है कि विचारों की लड़ाई में संयम, संस्कार और स्पष्टता से भी जीत हासिल की जा सकती है।
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