दिव्य ज्ञान : आत्मा का वास्तविक जागरण
दिव्य ज्ञान क्या है?
दिव्य ज्ञान कोई साधारण जानकारी नहीं, बल्कि वह आंतरिक प्रकाश है जो आत्मा को उसके मूल स्वरूप का अनुभव कराता है। यह वह बोध है जिसमें मनुष्य समझता है कि वह शरीर नहीं, बल्कि ईश्वर का अंश है—अनंत, शुद्ध और चिरसुखस्वरूप आत्मा।
यह ज्ञान बुद्धि से नहीं, अनुभूति से प्राप्त होता है—जब गुरु की कृपा और ईश्वर का आशीर्वाद आत्मा पर पड़ता है, तब भीतर से एक नई दृष्टि प्रकट होती है। संसार के झूठे आकर्षण मिटने लगते हैं और मन ईश्वर की ओर खिंचता चला जाता है।
विभिन्न धर्मों में इसी सत्य को अलग-अलग नामों से जाना गया है—ईसाई धर्म में “ईश्वर की कृपा का प्रकाश,” इस्लाम में “नूर-ए-इलाही,” बौद्ध धर्म में “निर्वाण,” और हिंदू धर्म में “ब्रह्मज्ञान”। सबका उद्देश्य एक ही है—आत्मा को अज्ञान के अंधकार से मुक्त कर सत्य के प्रकाश से जोड़ना।
अज्ञानता की जड़ क्या है?
भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता (2.69) में कहा—
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: || 69||
“जो सबके लिए रात्रि है, उसमें संयमी जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं, वह ज्ञानी के लिए रात्रि है।”
इसका अर्थ है कि जहाँ संसार भौतिक सुखों को जीवन का प्रकाश समझता है, वहाँ ज्ञानी व्यक्ति उसे अंधकार मानता है। और जहाँ ज्ञानी आत्म-साक्षात्कार में आनंद पाता है, वहाँ सामान्य जन को कुछ दिखाई नहीं देता। यही उलटी दृष्टि अज्ञान और ज्ञान के बीच का अंतर बताती है।
अज्ञान यह है कि हम ईश्वर को नहीं जानते, स्वयं को केवल शरीर मान लेते हैं, अस्थायी वस्तुओं को स्थायी समझते हैं, और संसारिक रिश्तों में स्थायी सुख खोजते रहते हैं। परिणामस्वरूप आत्मा भटकती रहती है और सच्चे आनंद से दूर हो जाती है।
अज्ञान से मुक्ति का मार्ग
अज्ञान के अंधकार को मिटाने का एकमात्र उपाय है दिव्य ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना। और यह प्रकाश सद्गुरु की शरण से मिलता है। गुरु ही वह सेतु हैं जो जीव और भगवान के बीच संबंध स्थापित करते हैं।
गुरु की संगति में श्रद्धा, भक्ति और विवेक का विकास होता है। नियमित साधना—श्रवण (सुनना), कीर्तन (नाम-स्मरण), ध्यान (रूप-ध्यान) और मनन (चिंतन)—से ज्ञान धीरे-धीरे अनुभव में बदलने लगता है।
भक्ति के तीन प्रमुख स्वरूप इस साधना को पूर्ण बनाते हैं—
अनन्य भक्ति: केवल भगवान में मन लगाना।
नित्य भक्ति: हर क्षण भगवान का स्मरण करना।
निष्काम भक्ति: बिना किसी अपेक्षा के केवल उनकी प्रसन्नता के लिए प्रेम करना।
समर्पण का आनंद
जब साधक अहंकार और इच्छाओं को त्यागकर सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देता है, तब उसके भीतर एक गहरी शांति उतर आती है। यही सच्चा समर्पण या शरणागति है। उस अवस्था में साधक को हर दिशा में ईश्वर का प्रकाश दिखने लगता है—हर घटना में उनका संदेश, हर हृदय में उनका प्रेम।
तभी आत्मा यह अनुभव करती है कि दिव्य ज्ञान कोई सीखा हुआ विषय नहीं, बल्कि जिया हुआ सत्य है। यह वही प्रकाश है जो अंधकार मिटाकर जीवन को प्रेम, भक्ति और आनंद से आलोकित कर देता है।


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