फागुन के रंग, साहित्यिक कविताओं के संग!

फागुन का महीना मस्ती का महीना होता है। हर तरफ उमंग, उत्साह और उल्लास नज़र आता है। प्रकृति में भी एक नई ऊर्जा का संचार हो रहा होता है और ऐसे में हर उम्र के स्त्री और पुरुष के चेहरे पर भी मुस्कान नज़र आती है। होली के रंगों की फुहार आने से पहले ही नवरंग प्रकृति पर अपना असर डाल देते हैं और पूरी धरा रंगीन चादर ओढ़े हुए नज़र आने लगती है। यही रंग, यही उमंग, यही जोश, उत्साह और उल्लास नज़र आता है साहित्यिक रचनाओं में भी और जब फागुन में होली आ जाये तो क्या ही कहने हैं। अब गीतों के राजकुमार कहे जाने वाले पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित मूर्धन्य कवि गोपाल दास नीरज की ये कविता ही देख लीजिये...।

करें जब पाँव खुद नर्तन, समझ लेना कि होली है,
हिलोरें ले रहा हो मन, समझ लेना कि होली है।

इमारत इक पुरानी सी, रुके बरसों से पानी सी,
लगे बीवी वही नूतन, समझ लेना कि होली है।

कभी खोलो हुलस कर, आप अपने घर का दरवाजा,
खड़े देहरी पे हों साजन, समझ लेना कि होली है।

तरसती जिसके हों दीदार तक को आपकी आंखें,
उसे छूने का आये क्षण, समझ लेना कि होली है।

हमारी ज़िन्दगी यूँ तो है इक काँटों भरा जंगल,
अगर लगने लगे मधुबन, समझ लेना कि होली है।

बुलाये जब तुझे वो गीत गा कर ताल पर ढफ की,
जिसे माना किये दुश्मन, समझ लेना कि होली है।

अगर महसूस हो तुमको, कभी जब सांस लो 'नीरज',
हवाओं में घुला चन्दन, समझ लेना कि होली है।।

वहीं कवि दिनेश शुक्ल ने दोहों के माध्यम से फागुन के बारे में क्या कहा है, अब ज़रा वो भी पढ़ लीजिये....।

कौन रंग फागुन रंगे, रंगता कौन वसंत,
प्रेम रंग फागुन रंगे, प्रीत कुसुंभ वसंत।

रोमरोम केसर घुली, चंदन महके अंग,
कब जाने कब धो गया, फागुन सारे रंग।

रचा महोत्सव पीत का, फागुन खेले फाग,
साँसों में कस्तूरियाँ, बोये मीठी आग।

पलट पलट मौसम तके, भौचक निरखे धूप,
रह रहकर चितवे हवा, ये फागुन के रूप।

मन टेसू टेसू हुआ तन ये हुआ गुलाल
अंखियों, अंखियों बो गया, फागुन कई सवाल।

होठोंहोठों चुप्पियाँ, आँखों, आँखों बात,
गुलमोहर के ख्वाब में, सड़क हँसी कल रात।

अनायास टूटे सभी, संयम के प्रतिबन्ध,
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीदे छंद।

अंखियों से जादू करे, नजरों मारे मूंठ,
गुदना गोदे प्रीत के, बोले सौ सौ झूठ।

पारा, पारस, पद्मिनी, पानी, पीर, पलाश,
प्रंय, प्रकर, पीताभ के, अपने हैं इतिहास।

भूली, बिसरी याद के, कच्चे पक्के रंग,
देर तलक गाते रहे, कुछ फागुन के संग।।

इसी क्रम में प्रस्तुत है आज की अगली और आखिरी कविता भवानी प्रसाद मिश्र की लिखी हुई "चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ!"

चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ !
आज पीले हैं सरसों के खेत, लो;
आज किरनें हैं कंचन समेत, लो;
आज कोयल बहन हो गई बावली
उसकी कुहू में अपनी लड़ी गीत की-
हम मिलाएँ।
 
चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ !
आज अपनी तरह फूल हँसकर जगे,
आज आमों में भौरों के गुच्छे लगे,
आज भौरों के दल हो गए बावले
उनकी गुनगुन में अपनी लड़ी गीत की
हम मिलाएँ !

चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ !
आज नाची किरन, आज डोली हवा,
आज फूलों के कानों में बोली हवा,
उसका संदेश फूलों से पूछें, चलो
और कुहू करें गुनगुनाएँ !

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