तुम मिरे पास रहो.. "फ़ैज़ अह्मद"

आज हम बात करेंगे फ़ैज़ अह्मद की जोकी भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव (इंक़लाबी और रूमानी) के मेल की वजह से जाना जाता है.  सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी (तरक्कीपसंद) दौर की रचनाओं को सबल किया.. उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था.. फ़ैज़ पर कई बार कम्यूनिस्ट (साम्यवादी) होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप लगे थे पर उनकी रचनाओं में ग़ैर-इस्लामी रंग नहीं मिलते.. जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया था. उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं.. जैसे कि 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'...तो चलिए फ़ैज़ अहमद की लिखी कुछ पंक्तियाँ पढ़ते हैं..

1:-हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाजिर भी
जो मंजर भी है नाजिर भी
उट्ठेगा अनल-हक का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी खल्क़-ए-खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो..

२:- "अब कहाँ रस्म घर लुटाने की"

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की

कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की

बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की

साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की

चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की...

3 :- "तुम मिरे पास रहो"

तुम मिरे पास रहो
मिरे क़ातिल, मिरे दिलदार मिरे पास रहो

जिस घड़ी रात चले,
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले

मरहम-ए-मुश्क लिए, नश्तर-ए-अल्मास लिए
बैन करती हुई हँसती हुई, गाती निकले

दर्द के कासनी पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिल

आस्तीनों में निहाँ हाथों की रह तकने लगे
आस लिए

और बच्चों के बिलकने की तरह क़ुलक़ुल-ए-मय
बहर-ए-ना-सूदगी मचले तो मनाए न मने

जब कोई बात बनाए न बने
जब न कोई बात चले

जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी सुनसान सियह रात चले

पास रहो
मिरे क़ातिल, मिरे दिलदार मिरे पास रहो

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