घरघोड़ा विकासखंड के पतरापाली शासकीय प्राथमिक विद्यालय की भयावह हकीकत...

घरघोड़ा - यह तस्वीर किसी वीरान खंडहर की नहीं, बल्कि आज भी संचालित एक प्राथमिक शाला की है — जहाँ देश का भविष्य, छत से झड़ते मलबे की छांव में बैठा है। स्कूल की छत मानो अपनी अंतिम साँसें गिन रही हो, और प्रशासन... वह शायद किसी हादसे की प्रतीक्षा में गूंगा-बहरा बना बैठा है। तस्वीर में साफ देखा जा सकता है कि छत के प्लास्टर की परतें जगह-जगह से उखड़ चुकी हैं। जर्जर हालात इतने भयावह हैं कि कोई भी हिस्सा किसी भी क्षण भरभरा कर गिर सकता है — और उस वक़्त नीचे बैठे मासूम बच्चों की चीखें शायद दीवारों में ही दफन हो जाएँ। क्या यह वही "नवभारत" है, जहाँ बच्चों को सुरक्षित, स्वच्छ और संरक्षित शैक्षणिक वातावरण देने की बात होती है? क्या यही वह "स्कूल चले हम" अभियान का यथार्थ है, जहाँ बच्चे जान हथेली पर रखकर पढ़ने जाते हैं? ग्रामवासियों की चिंता,प्रशासन की चुप्पी गाँव के सरपंच से लेकर पालकगण तक, सभी कई बार इस दुर्दशा की सूचना संबंधित अधिकारियों तक पहुँचा चुके हैं। मगर न तो किसी अफसर की नींद टूटी, न कोई तकनीकी निरीक्षण हुआ। कागजों पर विकास दौड़ रहा है, लेकिन पतरापाली की यह छत ज़मीन पर दम तोड़ रही है।झालावाड़ की त्रासदी — एक चेतावनी राजस्थान के झालावाड़ जिले में हाल ही में एक स्कूल की छत गिरने से कई मासूम छात्र अपनी जान गंवा बैठे। उस हादसे के बाद शासन-प्रशासन में हलचल तो मची, पर क्या वह चेतावनी केवल एक जिले तक सीमित रहनी चाहिए? क्या पतरापाली जैसे विद्यालयों की स्थिति किसी बड़े हादसे की पूर्व सूचना नहीं दे रही? नैतिक प्रश्न, नीतिगत चूक यह अब सिर्फ एक विद्यालय भवन की बात नहीं रही — यह प्रश्न है शासन की प्राथमिकताओं का। यह सवाल है: क्या ग्रामीण भारत के बच्चों को सुरक्षित कक्षाएँ उपलब्ध कराना कोई 'सुविधा' है या उनका 'अधिकार'? यदि नहीं जागे अब भी... तो फिर अगली खबर में केवल मलबे से निकाले जा रहे बस्ते, किताबें और शायद नन्हे शव ही मिलेंगे। उस दिन शर्म से झुके सिरों से कोई उत्तरदायित्व नहीं बचा पाएगा।
रिपोर्टर - सुनील जोल्हे
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