ग़ज़ल को कोठे से माँ के क़दमों तक लाने वाला मुनव्वर ने कहा अलविदा....!

वो शख्स़ ग़ज़लों को कोठों से उतार कर माँ के क़दमों तक ले आया...। वो शख्स़ अशआरों में शराब की बू की जगह ममता की ख़ुशबू ले आया...। जो ख़ुदा कभी आसमाँ में बैठा हुआ था, वो शख्स़ अपनी शायरी के ज़रिये ख़ुदा को माँ की शक्ल में ज़मीं पर ले आया...। उस शख्सियत की पहचान बस इतनी सी है कि उसने कभी ख्वाहिश की थी कि...  
मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ,
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ।
 
कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर,
ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ।।
 
अपनी शेर-ओ-शायरी, ग़ज़ल, और अशआरों से माँ को हमेशा नमन करने वाली उस शख्सियत का नाम है मुनव्वर राणा...। बीती रात दिल की बात बेबाकी से कहने वाले लाजवाब शायर मुनव्वर राणा साहब का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। उनका जाना उर्दू मुशायरे और साहित्य जगत को सूना कर गया। उनकी मौत ने उर्दू साहित्य को एक ऐसी कमी दे दी कि अब वो जगह हमेशा ख़ाली ही रहेगी।  मुनव्वर राणा साहब का एक ओर जहाँ शायरी से गहरा रिश्ता रहा, वहीं विवादों ने उनका दामन थामे रखा था। मगर बहरहाल आज उनके इंतेकाल के बाद उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया जाएगा...।
 
 
मुनव्वर राणा का जन्म 26 नवम्बर, 1952 को रायबरेली के किला बाज़ार में हुआ था। बँटवारे के वक्त उनके पिता अनवर राणा और माँ आयशा ख़ातून के पास पाकिस्तान जाने का विकल्प था और उनके परिवार के तमाम लोग चले भी गए थे, मगर उन्होंने हिन्दुस्तान में ही रुकने का फैसला किया। परिवार का पालन-पोषण करने के लिए अनवर राणा कोलकाता में ट्रक चलाते थे और परिवार को भी वहीं बुला लिया। परिवार की आर्थित स्थित सही न होने के चलते मुनव्वर की पढ़ाई-लिखाई बहुत अच्छी नहीं हुई। 12 वीं के बाद मुनव्वर ने बीकॉम में प्रवेश ले लिया।
 
वहीं 1970 के आसपास बंगाल में ज़मींदारों के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया। उस दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के ने ताओं ने हथियार भी उठा लिया और उस दौरान के कम्युनिस्ट नेताओं के प्रभाव में नई उम्र के लड़के उनके साथ जुड़ते चले गए जिनमें मुनव्वर भी शामिल थे। मुनव्वर के इस कदम से उनके पिता काफी नाराज़ हुए और उन्हें घर से निकाल दिया। आंदोलन के चक्कर में दो साल तक मुनव्वर भटकते रहे, मगर जब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ तो घर वापस लौट आए।
 
मुनव्वर राणा को पढ़ने-लिखने का शौक था, जिसके चलते उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब से लेकर मीर अनीस, फैज़ अहमद फैज़, बशीर बद्र आदि को पढ़ा। उसके बाद जब लिखना शुरू किया तो लखनऊ के बड़े शायर उस्ताद वाली आसी का उन्हें साथ मिला, जिन्होंने मुनव्वर की शायरियों को तराशा और मंच पर खड़ा किया। फिर धीरे-धीरे मुनव्वर राणा ने अपनी शायरी से दुनिया को जीतना शुरू कर दिया और आज दुनिया भर उनके लाखों प्रशंसक मौजूद हैं।
 
आज सी न्यूज़ भारत मुनव्वर राणा साहब को याद करते हुए उनके लिखे हुए कुछ अशआर और ग़ज़ले आप सभी की ख़िदमत में पेश करता है। इनके भीतर छुपे आत्मिक रस का पान करें और अपने कमेंट्स के ज़रिये हमें भी बताएँ कि मुनव्वर राणा साहब की शायरी आपकी ज़िंदगी में क्या मायने रखती है....।
 
मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ,
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ।
 
कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर,
ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ।
 
सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें,
तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊँ।
 
चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन,
क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ।
 
बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं,
शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊँ।
 
शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती,
मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊँ।।
 
 
तो अब इस गाँव से रिश्ता हमारा खत्म होता है,
फिर आँखें खोल ली जायें कि सपना खत्म होता है।
 
मुक़द्दस मुस्कुराहट माँ के होंटों पर लरजती है,
किसी बच्चे का जब पहला सिपारा खत्म होता है।
 
हवाएँ चुपके-चुपके कान में आ कर ये कहती हैं,
परिंदों, उड़ चलो अब आबो-दाना खत्म होता है।
 
बहुत दिन रह लिये दुनिया के सर्कस में तुम ऐ राना,
चलो अब उठ लिया जाये तमाशा खत्म होता है।।

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