मानव देह: ईश्वर की अनमोल देन

वेदिक शास्त्र मानव देह को अत्यंत दुर्लभ और मूल्यवान बताते हैं क्योंकि इसी माध्यम से आत्मा आध्यात्मिक उन्नति कर सकती है। मनुष्यों को ये तीन दिव्य कृपाएँ प्राप्त हुई हैं—

मानव शरीर, भगवान-प्राप्ति की इच्छा (मुमुक्षुत्व) और सत्य गुरु का सान्निध्य। इनका सदुपयोग ही जीवन को सार्थक बनाता है।

मानव रूप इतना मूल्यवान क्यों है?

भर्तृहरि कहते हैं कि यदि मनुष्य इन कृपाओं का उपयोग न करे, तो उसकी स्थिति पशुओं से भी निम्न हो जाती है। मानव शरीर इसलिए अनमोल है क्योंकि इसमें विवेक, आत्मचिंतन, और साधना की क्षमता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं—

“काम और क्रोध के वेग को जो नियंत्रित कर ले, वही सुखी मनुष्य है।” (गीता 5.23)

इसी विवेक से मनुष्य प्रश्न उठाता है—मैं कौन हूँ? मेरा लक्ष्य क्या है? कौन मेरी साधना में मार्गदर्शन करेगा?
यही जिज्ञासा ईश्वर-कृपा को आकर्षित करती है।

मानव रूप इसीलिए सर्वोच्च है क्योंकि ईश्वर-प्राप्ति केवल इसी में संभव है। देवता तक मानव जन्म पाने की इच्छा रखते हैं।

हम इसकी कीमत क्यों नहीं समझ पाए?

अज्ञान, इंद्रिय-सुखों का आकर्षण, माया का प्रभाव और सद्गुरु के अभाव के कारण मनुष्य इस अवसर को खो देता है।
श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं—

“भोग और ऐश्वर्य में लिप्त लोगों की बुद्धि स्थिर नहीं होती।” (गीता 2.44)

जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज भी कहते हैं—
“मिलत नहीं नर तनु बारम्बार।”
मानव शरीर अत्यंत दुर्लभ है; इसे खोने से पहले पहचानो।

मानव रूप को कैसे सार्थक करें?

स्वामी मुकुन्दानन्द जी बताते हैं कि हमें—
• विवेक का उपयोग,
• सही चुनाव,
• और आत्मिक उन्नति को प्राथमिकता देनी चाहिए।

श्रीकृष्ण कहते हैं—
“आध्यात्मिक प्रयास का थोड़ा-सा भाग भी महान भय से बचा लेता है।” (गीता 2.40)

 

मानव शरीर का औचित्य तभी सिद्ध होता है जब हम—

  • मन को शुद्ध करें,
  • स्वयं का श्रेष्ठ रूप बनें,
  • और भगवान–गुरु के प्रति प्रेम विकसित करें।

यदि इस जन्म में लक्ष्य पूरा न भी हो, तो ईश्वर हमारे आध्यात्मिक प्रयासों को सुरक्षित रखते हैं और आगे बढ़ने का अवसर देते हैं।

मानव देह—एक दुर्लभ अवसर है। इसे पहचानकर इसमें गुरु के द्वारा बताई गयी साधना करना और इश्वर के प्रति प्रेम प्राप्त करना ही सच्ची सफलता है।

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