"मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूँ"- गोपाल दास नीरज

हिंदी गीतों के राजकुमार कहे जाने वाले पद्मभूषण गोपाल दास नीरज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, बल्कि उनके बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। उनकी कविताओं, गीतों, ग़ज़लों के दुनिया में हज़ारों दीवाने हैं। एक दौर था जब गोपाल दास नीरज को सुनने के लिए कवि सम्मेलनों में हज़ारों लोगों की भीड़ लग जाया करती थी। तो आइये आज उन्हीं गोपाल दास नीरज की कुछ चुनिंदा ग़ज़ल और गीत से आपको रूबरू करवाते हैं और पढ़ते हैं उनकी कलम से निकली ये साहित्यिक रचनाएँ...।

हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे ।
होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे ।

इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे ।

वो न ज्ञानी ,न वो ध्यानी, न बिरहमन, न वो शेख,
वो कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे ।

एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द जुबाँ,
कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे ।

चाँद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख,
देखना ये है कि इन्सान कहाँ तक पहुँचे।।

दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था|
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था।

इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था।

मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था।

जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा,
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था।

उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,
जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था।

शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर,
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था।।

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूँ,
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो।

हैं फूल रोकते, कांटे मुझे चलाते
मरुस्थल, पहाड़ चलने की चाह बढ़ाते
सच कहता हूँ जब मुश्किलें ना होती हैं
मेरे पग तब चलने में भी शर्माते
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो।

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो।

अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूँ
मैं मरघट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूँ
हूँ आँख-मिचौनी खेल चला किस्मत से
सौ बार मृत्यु के गले चूम आया हूँ
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझ पर न कोई एहसान करो।
 
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो।

श्रम के जल से राह सदा सिंचती है
गति की मशाल आंधी मैं ही हँसती है
शोलों से ही शृंगार पथिक का होता है
मंज़िल की मांग लहू से ही सजती है
पग में गति आती है, छाले छिलने से
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो।

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो।

फूलों से जग आसान नहीं होता है
रुकने से पग गतिवान नहीं होता है
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगति भी
है नाश जहाँ निर्माण वहीं होता है
मैं बसा सकूं नव-स्वर्ग "धरा" पर जिससे
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो।

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो।

मैं पंथी तूफ़ानों में राह बनाता
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता
वह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर
मैं ठोकर उसे लगा कर बढ़ता जाता
मैं ठुकरा सकूँ तुम्हें भी हँसकर जिससे
तुम मेरा मन-मानस पाषाण करो।

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो।

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