नीरज कहते थे 'जल-जलकर बुझ जाना' दीपक की विवशता है
![](news-pic/2025/January/08-January-2025/b-gopaldas-neeraj-080125142647.jpg)
गोपालदास नीरज (Gopaldas Neeraj) हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध कवि और गीतकार थे। उनका जन्म 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली गांव में हुआ था। उन्हें मुख्य रूप से उनके गीतों और कविताओं के लिए जाना जाता है, जो मानवीय भावनाओं और जीवन के गहरे पहलुओं को व्यक्त करते थे। वे अपनी काव्य रचनाओं के लिए बेहद लोकप्रिय थे और उनके गीतों में विशेष रूप से प्रेम, वेदना, और प्रकृति के अद्भुत चित्रण होते थे। नीरज जी का साहित्यिक जीवन बेहद समृद्ध था, और उनके गीतों ने न केवल साहित्यिक दुनिया को प्रभावित किया, बल्कि फिल्मों में भी उनका योगदान रहा। वे भारतीय सिनेमा के लिए कई हिट गीतों के लेखक रहे, जिनमें "करवटें" और "तेरे चेहरे से नजर नहीं हटती" जैसे गीत शामिल हैं। उनकी कविताएँ आम तौर पर सरल, संगीतमयी और भावनाओं से भरपूर होती थीं। उनका प्रमुख काव्य संग्रह "नीरज काव्य" के नाम से प्रकाशित हुआ। वे कवि सम्मेलनों के एक प्रमुख आकर्षण थे और उनकी उपस्थिति हर जगह मानी जाती थी। गोपालदास नीरज को उनकी साहित्यिक कृतियों के लिए कई पुरस्कारों से नवाजा गया, जिनमें पद्मश्री और साहित्य अकादमी पुरस्कार शामिल हैं।
जो झुका है वह उठे अब सर उठाए,
जो रुका है वह चले नभ चूम आए,
जो लुटा है वह नए सपने सजाए,
ज़ुल्म-शोषण को खुली देकर चुनौती,
प्यार अब तलवार को बहला रहा है ।
हर छलकती आँख को वीणा थमा दो,
हर सिसकती साँस को कोयल बना दो,
हर लुटे सिंगार को पायल पिन्हा दो,
चाँदनी के कण्ठ में डाले भुजाएँ,
गीत फिर मधुमास लाने जा रहा है ।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आंखों वाला पानी चाहिए।
बुझ जाये सरेशाम ही जैसे कोई चिराग
कुछ यूं है शुरुआत मेरी दास्तान की
नीरज से बढ़कर धनी कौन है यहां
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की
कितने ही कटुतम काँटे तुम मेरे पथ पर आज बिछाओ
और भी चाहे निष्ठुर कर का भी धुँधला दीप बुझाओ
किन्तु नहीं मेरे पग ने पथ पर बढ़कर फिरना सीखा है
मैंने बस चलना सीखा है... मैंने बस चलना सीखा है...
हंसी जिस ने खोजी वो धन ले के लौटा
ख़ुशी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा
जाने कैसा अजब शहर है
कैसा अजब मुसाफिर खाना
भीतर से लगता पहचाना
बाहर से दिखता अंजाना
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए
जिस की ख़ुश्बू से महक जाए पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सम्त खिलाया जाए
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जा के नहाया जाए
आंसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा
जहां प्रेम की चर्चा होगी मेरा नाम लिया जाएगा
No Previous Comments found.