शीर्षक: लोकतंत्र केवल शासन-प्रणाली नहीं, बल्कि एक जीवंत दायित्व है और यह दायित्व देश के प्रत्येक नागरिक का है
गुजरात - लोकतंत्र को हम आमतौर पर एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में समझते हैं—जहाँ चुनाव होते हैं, सरकारें बनती-बिगड़ती हैं और संविधान के अनुसार शासन चलता है। लेकिन लोकतंत्र की सच्ची आत्मा इन औपचारिक प्रक्रियाओं से बहुत आगे जाती है। वास्तव में, लोकतंत्र केवल एक शासन-प्रणाली नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक का एक जीवंत, निरंतर और नैतिक दायित्व है, जिसे दैनिक जीवन में निभाना आवश्यक है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो नागरिकों की सजगता, भागीदारी और साहस पर टिकी हुई है। लोकतंत्र की असली शक्ति मतपेटी में डाले गए वोट से शुरू होती है, लेकिन वहीं खत्म नहीं होती। यह शक्ति विचारों की स्वतंत्रता, असहमति के सम्मान, सत्ता से उत्तरदायित्व की मांग और सामाजिक सहभागिता में निरंतर बहती रहती है। यदि नागरिक सजग नहीं रहते, प्रश्न नहीं उठाते और अन्याय पर चुप रहते हैं, तो लोकतंत्र कागजी संरचना मात्र बनकर रह जाता है। इतिहास गवाह है कि कई देशों में नागरिकों की उदासीनता ने लोकतंत्र को कमजोर किया है, जबकि सक्रिय भागीदारी ने इसे मजबूत बनाया है।
लोकतंत्र की आत्मा जन-भागीदारी में छिपी है। यदि लोग केवल चुनाव के समय सक्रिय होते हैं और बाकी समय उदासीन रहते हैं, तो लोकतंत्र खोखला हो जाता है। सच्चा लोकतंत्र तब फलता-फूलता है जब नागरिक नीतियों को समझें, प्रश्न उठाएं, असहमति को सम्मान दें और सत्ता को जवाबदेह बनाएं। चुप्पी और उदासीनता लोकतंत्र के सबसे बड़े दुश्मन हैं। इनसे सत्ता मनमानी करने लगती है और जनता के अधिकार कमजोर पड़ते हैं।
लोकतंत्र का अर्थ: अधिकारों से आगे कर्तव्य
लोकतंत्र हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता का अधिकार और न्याय की गारंटी देता है। लेकिन हर अधिकार के साथ एक कर्तव्य भी जुड़ा होता है—
सत्य की पड़ताल करने का कर्तव्य,
सत्ता से साहसपूर्वक प्रश्न पूछने का दायित्व,
अल्पमत और असहमत विचारों की रक्षा करना,
सामाजिक सद्भाव और संवेदनशीलता बनाए रखना।
यदि हम केवल अधिकारों पर जोर दें और कर्तव्यों से मुंह मोड़ें, तो लोकतंत्र धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगता है। नागरिकों की यह जिम्मेदारी ही लोकतंत्र को जीवंत बनाती है।
दृष्टांत: नदी किनारे का गांव
एक गांव था—धारापुर। गांव के बीच से एक नदी बहती थी, जो सभी की जीवनरेखा थी। गाँववालों ने तय किया कि नदी की देखभाल सभी की सामूहिक जिम्मेदारी होगी। हर साल एक प्रतिनिधि चुना जाता, जो नदी से संबंधित निर्णय लेता। शुरू में सब ठीक चला। लोग प्रतिनिधि चुनकर निश्चिंत हो जाते। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने नदी की सफाई, किनारों की सुरक्षा और अवैध कटाव पर ध्यान देना बंद कर दिया। वे सोचते, “प्रतिनिधि है न, वही संभाल लेगा।” कुछ वर्षों बाद नदी प्रदूषित हो गई, पानी कम हो गया। प्रतिनिधि ने अपने फायदे के लिए निर्णय लेने शुरू कर दिए—रेत खनन की अनुमति, पेड़ों की कटाई। गांववाले शिकायत करते, लेकिन खुलकर विरोध नहीं करते। एक दिन तेज बारिश आई। नदी उफान पर आ गई, कमजोर किनारे टूट गए, खेत डूब गए, घर बह गए। तब गांववालों को एहसास हुआ कि नदी केवल प्रतिनिधि की नहीं, सभी की साझा जिम्मेदारी थी। जब सभी ने मिलकर नदी की देखभाल फिर शुरू की, प्रश्न उठाए और निगरानी रखी, तब नदी फिर जीवनदायिनी बन गई।
दृष्टांत का संदेश: धारापुर की नदी लोकतंत्र है, प्रतिनिधि सरकार है और गांववाले नागरिक। यदि नागरिक केवल प्रतिनिधि चुनकर निष्क्रिय हो जाएं, तो लोकतंत्र कमजोर पड़ जाता है। यह तभी सुरक्षित रहता है जब नागरिक सतर्क प्रहरी बनें।
वास्तविक उदाहरण: सूचना का अधिकार (आरटीआई) आंदोलन
भारत में नागरिक भागीदारी का एक शानदार उदाहरण सूचना का अधिकार (आरटीआई) आंदोलन है। 1990 के दशक में, राजस्थान के देवडुंगरी गांव में मजदूरों को मनरेगा जैसी योजनाओं में मजदूरी नहीं मिल रही थी। सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय, निखिल डे और शंकर सिंह ने मजदूरों को संगठित कर सरकारी रिकॉर्ड्स की कॉपियां मांगनी शुरू की। इससे भ्रष्टाचार उजागर हुआ—अधिकारियों ने फर्जी बिल बनाकर पैसे हड़पे थे।
यह स्थानीय संघर्ष राष्ट्रीय आंदोलन बना। मजदूरों और नागरिक समूहों ने मिलकर सूचना का अधिकार कानून की मांग की। वर्षों की मेहनत के बाद, 2005 में आरटीआई अधिनियम पारित हुआ। यह कानून नागरिकों को सरकारी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार देता है, जिससे पारदर्शिता बढ़ी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा। आज लाखों आरटीआई आवेदन दाखिल होते हैं, जो साबित करते हैं कि साधारण नागरिकों की सक्रियता सत्ता को जवाबदेह बना सकती है और लोकतंत्र को मजबूत कर सकती है। इसी तरह, इस आंदोलन ने दिखाया कि जमीनी स्तर की भागीदारी से बड़े बदलाव संभव हैं।
लोकतंत्र को जीवंत रखने की जिम्मेदारी लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक है कि—
हम अफवाहों के बजाय तथ्यों पर भरोसा करें,
मतभेद को दुश्मनी न बनने दें,
सवाल उठाना देशद्रोह न समझें,
सत्ता को सेवा की याद दिलाते रहें,
सोशल मीडिया से लेकर दैनिक संवाद तक जिम्मेदारी निभाएं।
लोकतंत्र केवल संसद या विधानसभा में नहीं जीवित रहता; वह स्कूलों की बहसों में, सड़कों पर संवेदनशीलता में, सोशल मीडिया की जिम्मेदारी में और घरेलू संवादों में भी सांस लेता है।
निष्कर्ष
लोकतंत्र कोई स्थिर संरचना नहीं, बल्कि एक सतत प्रक्रिया है, जिसे हर पीढ़ी को नए सिरे से जीना और बचाना पड़ता है। यह हमारी चुप्पी से कमजोर होता है और सजगता से मजबूत। यदि हम केवल अधिकार मांगें और कर्तव्यों से पीछे हटें, तो लोकतंत्र नाममात्र का रह जाएगा। इसलिए, लोकतंत्र केवल शासन-प्रणाली नहीं, बल्कि हम सभी का साझा, जीवंत दायित्व है। इसे निभाना ही सच्ची नागरिकता और मजबूत राष्ट्र का आधार है। हर नागरिक की सक्रिय भागीदारी से ही हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं जहां न्याय, समानता और पारदर्शिता सच्चे अर्थों में फलें-फूलें।
लेखक: चंद्रकांत सी पूजारी

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