विजयदशमी पर शस्त्र पूजन : राजपूती परंपरा और प्रशासनिक आस्था का संगम

चौपारण : सत्य की असत्य पर विजय और धर्म की अधर्म पर जीत का प्रतीक पर्व विजयदशमी पूरे देश में श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जा रहा है। इस दिन शस्त्र पूजन की परंपरा का विशेष महत्व है, जिसे प्राचीन काल से लेकर आज तक समाज ने अपने-अपने ढंग से सहेज कर रखा है।शास्त्रों के अनुसार, भगवान श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त करने से पहले अपने धनुष-बाण का पूजन किया था। महाभारत काल में पांडवों ने भी दशहरे के दिन अपने शस्त्रों को पुनः धारण कर युद्ध में विजय पाई। इसी से प्रेरित होकर भारत में दशहरे को शस्त्र पूजन दिवस के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई।
भारतीय इतिहास में शस्त्र पूजन का सबसे गहरा रिश्ता राजपूतों की परंपरा से रहा है। तलवार और ढाल को देवता मानकर उनकी पूजा करना, राजपूत संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। महाराणा प्रताप जैसे महान योद्धाओं ने अपने शस्त्रों को केवल आक्रमण का साधन नहीं, बल्कि धर्म, स्वाभिमान और मातृभूमि की रक्षा का संकल्प माना। दशहरे के अवसर पर राजपूत समाज विशेष रूप से अपने पारंपरिक शस्त्रों—तलवार, भाला, कटार और धनुष का पूजन करता है। कई क्षेत्रों में आज भी राजपूत परिवार इस दिन पारंपरिक पोशाक पहनकर शस्त्र पूजन करते हैं और पीढ़ियों से चली आ रही इस गौरवशाली परंपरा को जीवित रखते हैं। यही कारण है कि शस्त्र पूजन की चर्चा आते ही सबसे पहले राजपूती संस्कृति की झलक सामने आ जाती है।राजपूतों के साथ-साथ आज के दौर में पुलिस और सेना भी शस्त्र पूजन को विशेष महत्व देते हैं। देश की सीमाओं की सुरक्षा में तैनात जवान अपने हथियारों की पूजा कर यह संकल्प लेते हैं कि उनका प्रयोग केवल राष्ट्र रक्षा और न्याय की स्थापना के लिए ही होगा। इसी तरह पुलिस बल दशहरे पर अपने शस्त्रों और वाहनों का पूजन कर जनता की सेवा और कानून व्यवस्था बनाए रखने का प्रण लेते हैं। किसान और आमजन भी अपने हल, औजार और उपकरणों की पूजा कर इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।
विजयदशमी का वास्तविक संदेश यही है कि शक्ति का प्रयोग केवल धर्म की रक्षा, अन्याय के दमन और समाज की भलाई के लिए होना चाहिए। शस्त्र हिंसा का नहीं, बल्कि सुरक्षा, न्याय और राष्ट्र रक्षा का प्रतीक है। इस प्रकार विजयदशमी का शस्त्र पूजन एक ओर जहां राजपूती शौर्यगाथा और इतिहास का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर प्रशासनिक आस्था और कर्तव्यनिष्ठा का परिचायक भी है। यही कारण है कि यह पर्व आज भी उतनी ही प्रासंगिकता के साथ मनाया जाता है।
रिपोर्टर : मुकेश सिंह
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