बिरहोर बच्ची की मौत ने खोली स्वास्थ्य तंत्र की पोल, अस्पताल की घोर लापरवाही बनी मासूम की मौत का कारण...

चौपारण : प्रखंड के दैहर पंचायत अंतर्गत जमुनियातरी गांव की 12 वर्षीय बिरहोर बच्ची सरस्वती कुमारी की मौत ने एक बार फिर सरकार के आदिवासी हितैषी दावों की सच्चाई सामने ला दी है। इलाज के अभाव और सामुदायिक अस्पताल की लापरवाही के चलते इस मासूम ने दम तोड़ दिया। इससे न केवल बिरहोर समुदाय में आक्रोश है, बल्कि यह घटना पूरे स्वास्थ्य तंत्र पर एक बड़ा सवाल खड़ा करती है।बिरहोर समुदाय की यह बच्ची दो दिनों से बीमार थी। जब हालात बिगड़े, तो परिजन उसे 9 अक्टूबर को चौपारण सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लेकर पहुंचे। पर वहां मौजूद डॉक्टर ने बिना समुचित जांच के उसे हजारीबाग सदर अस्पताल रेफर कर दिया। बच्ची को एम्बुलेंस से भेजा गया, लेकिन रास्ते में ही, नेशनल पार्क के पास उसने दम तोड़ दिया।मामला यहीं नहीं रुका। अस्पताल प्रशासन की संवेदनहीनता उस वक्त खुलकर सामने आई जब बच्ची का शव लेकर लौट रही एम्बुलेंस ने उसे गांव से आठ किलोमीटर पहले ही जंगल में उतार दिया। मजबूर परिजनों को चारपाई पर शव को उठाकर पैदल जंगल पार करते हुए गांव लाना पड़ा। पूरे गांव में मातम पसरा हुआ है, लेकिन प्रशासन अब भी उदासीन बना है।ग्रामीणों का आरोप है कि बिरहोर समुदाय के लोगों को अस्पतालों में कभी भी समुचित इलाज नहीं मिलता। डॉक्टर ना तो ठीक से जांच करते हैं, ना ही इलाज। अक्सर मरीजों को जल्दबाजी में रेफर कर दिया जाता है। दिए गए दवाओं से तबीयत और बिगड़ जाती है।
जमुनियातरी गांव चौपारण से लगभग 27 किलोमीटर दूर, घने जंगलों और पहाड़ों के बीच स्थित है। यहां तक पहुंचने का रास्ता भी बेहद खराब है। ऐसे में ना समय पर एम्बुलेंस पहुंचती है, ना कोई स्वास्थ्यकर्मी। बावजूद इसके, सरकार कागजों में बिरहोर समुदाय के लिए तमाम योजनाओं की बात करती है।
बिरहोर समुदाय एक विलुप्तप्राय आदिम जनजाति है, जिनके लिए सरकार विशेष आरक्षण और योजनाएं घोषित करती रही है। लेकिन यह योजनाएं ज़मीनी स्तर तक नहीं पहुंच रही हैं। चौपारण के इस अस्पताल की लापरवाही से अब तक चार बिरहोरों की जान जा चुकी है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। ना किसी डॉक्टर पर गाज गिरी, ना किसी कर्मचारी की जवाबदेही तय की गई। हजारीबाग सिविल सर्जन डॉ. अशोक कुमार ने कहा कि बच्ची का इलाज पहले गांव में लगे मेडिकल कैंप में किया गया था। शव को जंगल में छोड़ने पर उनका कहना था कि एम्बुलेंस ड्राइवर से पूछताछ हुई है, रास्ता खराब होने की वजह से शव को वहीं उतारना पड़ा। प्रशासन की यह दलील ग्रामीणों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसी है। सवाल यह है कि अगर सड़क खराब थी, तो इलाज के लिए आई एम्बुलेंस कैसे पहुंची? और जब आदिवासी मासूम की जान जा चुकी थी, तब भी क्या इतनी संवेदना नहीं बची थी कि शव को अंतिम सम्मान के साथ गांव तक पहुंचाया जाए।बिरहोर बच्ची की यह मौत न सिर्फ सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता का प्रमाण है, बल्कि यह आदिवासी समुदाय के प्रति जारी भेदभाव और उपेक्षा की भी तस्वीर है। सवाल उठता है कि जब सरकारी अस्पताल ही आदिवासियों के लिए ‘मौत का अड्डा’ बन जाए, तो फिर इन वंचितों का सहारा कौन बनेगा।.
रिपोर्टर : मुकेश सिंह
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