मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!

मानव जाति प्राकृत होती है कि वह हर चीज को अपने अनकूल होना ही पसंद करता है , जीवन में प्रसिद्धि हासिल करना मानव जाति का मुख्य लक्ष्य होता है . कभी भी कोई व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसकी कभी किसी क्षेत्र में हार हो . यहाँ तक व्यक्ति जब किसी व्यक्ति से प्रेम करता है तो सामने वाले व्यक्ति से वापस प्रेम पाने की प्रबल चाह रखता है . और उसे लगता है  जिससे वह प्रेम करता है वह व्यक्ति भी प्रेम करेगा तभी उसका प्रेम सफल होगा अन्यथा उसके प्रेम का कोई अर्थ ही नहीं है .लेकिन आज हम आपके साथ कवि सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' की एक ऐसी रचना साझा करने जा रहें है जो इन सभी बातों से एकदम विपरीत हैं ,जो युद्ध में तीखी चोट की चाह भी रख रहीं है और साथ ही असफलता को ही असि-धार बनने की बात कर रही है.और प्रेम के अंतिम रहस्य की पहचान करने की बात कर रहीं है ...पढ़िए पूरी रचना ...

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

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