होली का शास्त्रीय, सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व

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होली का शास्त्रीय, सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व
होली पर्व का उल्लेख किए बिना सामाजिक समरसता की बात अधूरी मानी जाएगी। यह ऐसा उत्सव है जो समाज में ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भेद मिटाकर सभी को एक समान भाव से जोड़ता है। विभिन्न जातियों और वर्गों के लोग एक साथ मिलकर इस पर्व की खुशियाँ मनाते हैं।
शास्त्रीय महत्व
स्नेह, सौहार्द्र और समरसता का यह पर्व फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को होलिका दहन के अगले दिन मनाया जाता है। कई स्थानों पर यह उत्सव दो दिनों तक चलता है। इस पर्व का वर्णन विभिन्न प्राचीन ग्रंथों जैसे कि शतपथ ब्राह्मण, भविष्यपुराण, हेमाद्रि, निर्णय सिन्धु, भागवत पुराण, नारदपुराण, लिंग पुराण और वाराह पुराण में मिलता है। विशेष रूप से नारद पुराण इसे होलिका दहन और कामदेव के दहन से जोड़ता है।
होलिका पूजन एवं दहन विधि
नारद पुराण के अनुसार, फाल्गुन पूर्णिमा के दिन लकड़ियाँ और उपले एकत्र कर, रक्षोघ्न मंत्रों द्वारा अग्नि प्रज्वलित की जाती है। इसमें सूखी लकड़ी आदि डालकर होलिका दहन किया जाता है। यह प्रह्लाद को भयभीत करने वाली राक्षसी का अंत दर्शाता है, जिससे प्रसन्न होकर लोग उत्सव मनाते हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार, यह कामदेव के दहन का भी प्रतीक है।
पौराणिक कथा
इस पर्व की पृष्ठभूमि में हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद और उसकी बहन होलिका की कथा जुड़ी हुई है।
हिरण्यकशिपु के आदेश पर, होलिका को प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती आग में बैठने का आदेश दिया गया, क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। लेकिन भगवान नारायण की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित बच निकला और होलिका जलकर भस्म हो गई। इस घटना की स्मृति में लोग होलिका दहन के अवशेष को एक-दूसरे पर लगाकर आनंद मनाते हैं।
कृषि और धार्मिक महत्व
फाल्गुन मास के अंत में रबी की फसलें पकने लगती हैं। संस्कृत में अग्नि में भुने हुए अन्न को होलक कहते हैं। शब्दकल्पद्रुम और भावप्रकाश में भी इसका उल्लेख मिलता है।
सनातन धर्म में यह परंपरा है कि नए अन्न को पहले देवताओं को अर्पित किया जाता है। वैदिक ग्रंथों में अग्नि को देवताओं का मुख कहा गया है - अग्निर्वै देवानां मुखम् (शतपथ ब्राह्मण)। इसी कारण, होलिका दहन में गेहूँ, जौ, अलसी आदि के पौधों को अर्पण किया जाता है, और इसके बाद ही फसल की कटाई प्रारंभ होती है।
भविष्यपुराण के अनुसार होली
भविष्यपुराण के अनुसार, ढुण्ढा नाम की राक्षसी को शिवजी से वरदान प्राप्त था कि वह अवध्य रहेगी। लेकिन वह छोटे बच्चों को कष्ट देने लगी। इसलिए, लोग उसके पुतले को जलाकर उसे बुरी गालियाँ देकर अपने क्रोध को प्रकट करते थे।
होली और वसंत ऋतु
होली वसंत ऋतु में आती है, जो उल्लास, उमंग और आनंद का प्रतीक मानी जाती है। प्राचीन काल में इस ऋतु में श्रृंगार रस के नाटकों का मंचन होता था। वसंत की मादक वायु मनुष्यों में हर्ष और आनंद का संचार करती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से होली
आयुर्वेद के अनुसार, होली शीत ऋतु के तुरंत बाद आती है, जब शरीर में कफ की मात्रा अधिक होती है। होलिका की गर्मी से यह संतुलित होती है। भुना हुआ अन्न और गुड़ कफ-नाशक माने जाते हैं। भावप्रकाश में लिखा है - होलकोऽल्पानिलो मेदः कफदोषश्रमापहः।
गुझिया, जिसमें गुड़, मेवा और सोंठ जैसे तत्व होते हैं, कफ दोष को नष्ट करने में सहायक होती है।
सामाजिक समरसता में होली का योगदान
होली एक ऐसा पर्व है जो सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है। इसमें जाति, धर्म, वर्ग का कोई भेदभाव नहीं होता। नर और नारी दोनों मिलकर इसे उत्साहपूर्वक मनाते हैं।
सामाजिक सौहार्द का पर्व
एक वर्ष में उत्पन्न मतभेद और गिले-शिकवे होली के रंग में घुलकर समाप्त हो जाते हैं। बिना किसी भेदभाव के लोग एक-दूसरे के गले मिलते हैं और प्रेमपूर्वक एक नई शुरुआत करते हैं।
निष्कर्ष
होली केवल रंगों का पर्व नहीं है, बल्कि यह स्वास्थ्य, धार्मिक परंपरा, कृषि समृद्धि, उल्लास, मनोरंजन और सामाजिक सद्भाव का प्रतीक भी है। आज के समय में, सामाजिक समरसता और भाईचारे की विशेष आवश्यकता है, जिसे यह पर्व बढ़ावा देता है।
आप सभी को रंगों के इस महोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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