क्या अमर्यादित भाषणों से होगा देश का भविष्य निर्माण ?
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहाँ विभिन्न राजनैतिक दल अपनी अपनी राजनीती चमकाने के लिए तरह तरह के प्रयास करते रहते हैं | एक समय था जब पक्ष और विपक्ष में अपनी अपनी कार्यप्रणाली और सोच का भेद था पर आपस में भाईचारा पाया जाता था परंतु आज समय बदला और बदल गयी राजनीती की बैसाख और अब यहाँ विचारों का भेद नहीं वल्कि आपसी मतभेद और अपशब्दों का वेग उल्लेखनीय हैं |
भारत में लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं, बल्कि यह एक जीवंत प्रक्रिया है जिसमें संवाद, बहस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संविधान ने प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है, जो लोकतंत्र का आधार मानी जाती है। लेकिन हाल के वर्षों में एक प्रश्न बार-बार उठने लगा है — क्या अमर्यादित भाषणों, आपत्तिजनक टिप्पणियों और कटाक्षों के माध्यम से हम सच में देश का भविष्य संवार सकते हैं?
यह प्रश्न केवल राजनीतिक विमर्श तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज, मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। आज जब हर व्यक्ति अपने विचार को खुले मंच पर रख सकता है, तो भाषा की मर्यादा और जिम्मेदारी पर गंभीर मंथन जरूरी हो गया है।
भारतीय राजनीति में चुनावी सभाएँ और प्रचार रैलियाँ लोकतंत्र के उत्सव की तरह होती हैं। लेकिन इन रैलियों में अमर्यादित टिप्पणियाँ नया चलन बन चुकी हैं। नेता एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले करते हैं, अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं और भीड़ को उत्तेजित करते हैं। इससे राजनीतिक संवाद का स्तर गिरता है।
चुनाव आयोग ने कई बार ऐसे भाषणों पर रोक लगाने की कोशिश की है, लेकिन केवल कानूनी कार्रवाई से समस्या खत्म नहीं होती। जब तक राजनीतिक दल स्वयं आचार संहिता का पालन करने का निश्चय नहीं करते, तब तक स्थिति में सुधार मुश्किल है।
देश का भविष्य केवल आर्थिक विकास, तकनीकी प्रगति या अवसंरचना निर्माण से नहीं बनता। यह भविष्य इस बात पर भी निर्भर करता है कि हम एक-दूसरे से कैसे संवाद करते हैं। यदि हमारी भाषा में मर्यादा, सम्मान और सहिष्णुता होगी तो लोकतंत्र और मजबूत होगा। लेकिन यदि अमर्यादित भाषणों का चलन जारी रहा, तो समाज में कटुता, अविश्वास और हिंसा बढ़ेगी, जो देश के भविष्य को कमजोर कर सकती है।
इसलिए यह समय है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन बनाएं। लोकतंत्र की खूबसूरती इसी में है कि हर आवाज सुनी जाए — लेकिन ऐसी आवाज जो निर्माण करे, न कि विध्वंस।

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