ज़िन्दगी की कहानी रही अनकही...

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री हिंदी व संस्कृत के कवि, लेखक एवं आलोचक थे. उन्होने 2010 में पद्मश्री सम्मान लेने से मना कर दिया था. इसके पूर्व 1994
में भी उन्होने पद्मश्री नहीं स्वीकारी थी. वे छायावादोत्तर काल के सुविख्यात कवि थे. उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित किया था. आचार्य का काव्य-संसार बहुत ही विविध और व्यापक है. वे थोड़े-से कवियों में रहे हैं, जिन्हें हिंदी कविता के पाठकों से बहुत मान-सम्मान मिला है. प्रारंभ में उन्होंने संस्कृत में कविताएँ लिखीं थी. तो आइए जानकीवल्लभ शास्त्री की इस कविता को पढ़ते हैं....

ज़िन्दगी की कहानी रही अनकही,
दिन गुज़रते रहे, सांस चलती रही।

अर्थ क्या? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु, पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही।

जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुन्दन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वन्द्व दलता रहा, पीर पलती रही।

बात ईमान की या कहो मान की,
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उँगलियाँ तार पर क्यों मचलती रहीं।

और तो और, वह भी अपना बना,
आँख मून्द रहा, वह न सपना बना।
चान्द मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही।

यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं।
जुस्तजू में किसी मौज की, सिन्धु के
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही।

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