हेमंत सोरेन का मास्टरस्ट्रोक: JMM ने क्यों छोड़ी बिहार की चुनावी जंग?

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मियां चरम पर हैं, जहां नामांकन की अंतिम तिथि (20 अक्टूबर) गुजरते ही एक बड़ा राजनीतिक भूचाल आ गया, झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) ने महागठबंधन से नाता तोड़ते हुए चुनाव से पूरी तरह पीछे हटने का ऐलान कर दिया। यह फैसला न सिर्फ सीमावर्ती जिलों की सियासत को हिला गया, बल्कि विपक्षी खेमे में गठबंधन की एकजुटता पर सवालिया निशान लगा दिया। क्या यह हेमंत सोरेन की पार्टी का रणनीतिक 'फ्रेंडली विदड्रॉल' है, या RJD-कांग्रेस की 'राजनीतिक साजिश' का नतीजा? आइए, इसकी परतें खोलें। झारखंड की सत्तारूढ़ पार्टी JMM ने बिहार चुनाव से पीछे हटने का यह फैसला 20 अक्टूबर को लिया, जब नामांकन की समय सीमा समाप्त हो चुकी थी। पार्टी ने पहले 18 अक्टूबर को स्वतंत्र रूप से छह सीटों-चकाई, धमदाहा, कटोरिया, मणिहारी, जमुई और पीरपैंती पर लड़ने का ऐलान किया था, लेकिन अंततः किसी भी नामांकन पत्र पर दस्तखत नहीं हुए। 

JMM के वरिष्ठ नेता और झारखंड मंत्री सुदिव्य कुमार ने इसे RJD और कांग्रेस की 'राजनीतिक साजिश' करार दिया, दावा किया कि सीट बंटवारे की बातचीत में पार्टी को जानबूझकर हाशिए पर धकेल दिया गया। 7 अक्टूबर को पटना में हुई बैठक के बाद से ही RJD की 'चालाकी' और कांग्रेस की चुप्पी ने JMM को अपमानित महसूस कराया, जिसके चलते पार्टी ने न सिर्फ बिहार से दूरी बना ली, बल्कि झारखंड में भी गठबंधन की समीक्षा का संकेत दिया। 

यह कदम जितना अप्रत्याशित लगा, उतना ही रणनीतिक भी साबित हो रहा है। JMM का बिहार से पुराना नाता रहा है, खासकर संथाल परगना से सटे जिलों जमुई, बांका, भागलपुर, कटिहार और किशनगंज में, जहां आदिवासी और संथाली आबादी मजबूत है। 2020 के चुनाव में JMM ने 21 सीटों पर उतरकर करीब 59,500 वोट (0.23% वोट शेयर) हासिल किए थे, लेकिन नतीजे निराशाजनक रहे। 

2025 में पार्टी ने दोबारा जोर-शोर से तैयारी की स्थानीय इकाइयां सक्रिय कीं, संथाल क्षेत्र में बैठकें कीं फिर भी पीछे हटना दर्शाता है कि फैसला सिर्फ स्थानीय समीकरणों तक सीमित नहीं। इसमें राष्ट्रीय गठबंधन की जटिलताएं और हेमंत सोरेन की घरेलू चुनौतियां जुड़ी हैं।हेमंत सोरेन फिलहाल ED की जांच और राजनीतिक विरोधियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में बिहार चुनाव में कूदना उनके लिए 'फोकस डाइवर्जन' साबित होता, झारखंड की सत्ता बचाने के बजाय ऊर्जा बिखर जाती। JMM ने प्रतीकात्मक उपस्थिति से फासला चुनकर खुद को नुकसानदेह स्थिति से बचाया। अगर पार्टी मैदान में उतरती, तो महागठबंधन के वोट बैंक खासकर राजद और कांग्रेस के आदिवासी वोट में सेंध लग सकती थी, जिससे विपक्षी वोट बिखरते और NDA (भाजपा-जदयू) को अप्रत्यक्ष लाभ मिलता। 

इसके बजाय, JMM का 'फ्रेंडली विदड्रॉल' विपक्ष के लिए वोट एकीकरण का अवसर बन गया, संभावित JMM समर्थक अब सहजता से महागठबंधन की ओर मुड़ सकते हैं। हालांकि, JMM के आरोपों ने महागठबंधन में दरारें उजागर कर दीं। RJD ने 143 उम्मीदवारों की सूची जारी कर ली, जबकि कांग्रेस ने 60 सीटों पर दांव लगाया, लेकिन JMM को एक भी सीट न देना गठबंधन धर्म का उल्लंघन माना जा रहा है। BJP नेता मुक्तार अब्बास नकवी ने इसे महागठबंधन की 'असफलता' करार दिया, जबकि JDU के राजीव रंजन ने JMM की 'कृतज्ञता' पर तंज कसा। JMM अब बिहार में सक्रिय प्रचार या समर्थन से परहेज करेगी, लेकिन इसका असर झारखंड के आगामी गठबंधन पर पड़ेगा।

JMM का पीछे हटना महागठबंधन के लिए 'वोट कंसोलिडेशन' का टॉनिक तो है, लेकिन गठबंधन की नाजुक एकजुटता पर चोट भी। हेमंत सोरेन ने बिहार की बजाय झारखंड पर फोकस चुनकर 'डैमेज कंट्रोल' की होशियारी दिखाई, जबकि NDA इस फूट का फायदा उठाने को बेताब। अब 6 और 11 नवंबर को होने वाले मतदान से साफ होगा कि क्या यह विपक्ष का 'साइलेंट सपोर्ट' बनेगा या NDA की जीत का नया रंगमंच? बिहार की जनता का फैसला ही अंतिम सत्य होगा।

Leave a Reply



comments

Loading.....
  • No Previous Comments found.