कबीर दस के दोहे और उनका अर्थ

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥
भावार्थ:- गुरु में और पारस-पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥
भावार्थ:- सद्गुरु सत्य- भाव का भेद बताने वाला है। वह शिष्य धन्य और भाग्यशाली है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरूप की सुधि पा गया है।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
भावार्थ:- गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहारा देकर, बाहर से चोट मार-मारकर और गढ़-गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकालते हैं।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
भावार्थ:- सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥
भावार्थ:- बड़े-बड़े विद्वान शास्त्रों को पढ़-गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
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