कैफ़ भोपाली: मुशायरों की रूह और कमाल अमरोही की नज़रों के शायर

शायरी की महफिल का सितारा
"चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो..."
फ़िल्म पाकीज़ा का यह मशहूर गीत जिसने न सिर्फ सिनेमा को बल्कि हर दिल को छू लिया, उसे लिखा था वो शायर जिसे दुनिया कैफ़ भोपाली के नाम से जानती है। उनका नाम सुनते ही मुशायरों की चकाचौंध और शायरी की रूहानी गर्मी ज़हन में आ जाती है।
1917 में भोपाल, मध्यप्रदेश में जन्मे कैफ़ भोपाली आम ज़िंदगी जीने वाले मगर अपने उसूलों पर कायम रहने वाले फकीर-मिज़ाज शायर थे। शायरी उनके लिए पेशा नहीं, इबादत थी। जिस मुशायरे में पहुंच जाते, वहाँ समा ही कुछ और होता।
स्टेशन पर अलाव, शराब और शायरी
शायर निदा फ़ाज़ली ने वाणी प्रकाशन की किताब 'चेहरे' में कैफ़ साहब का एक दिलचस्प किस्सा बयान किया है। एक बार वे बदनेरा स्टेशन (अमरावती के पास) ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे और स्टेशन से बाहर निकलते ही अलाव के पास बैठे कुलियों, फ़क़ीरों और तांगेवालों के बीच उन्हें कैफ़ भोपाली झूमते और ग़ज़लें सुनाते दिखे। शराब की बोतल से सबकी मेहमाननवाज़ी हो रही थी और हर शेर पर शोर मच रहा था।
शायरी और शराब, दोनों की मोहब्बत
कैफ़ साहब की ज़रूरतें बहुत सीमित थीं। ऐशो-आराम से उन्हें कोई खास लगाव नहीं था, लेकिन शराब उनके शौक में सबसे ऊपर थी। उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा शराब और ज़रूरतमंदों के लिए होता, जबकि बाकी खर्चों की ज़िम्मेदारी आमतौर पर वो मेज़बान उठाता जो उन्हें मुशायरे में बुलाता।
अदायगी ऐसी कि हर लफ्ज़ ज़िंदा हो उठे
उनकी शायरी का अंदाज़ और प्रस्तुति दोनों ही अनूठे थे। वे तरन्नुम में शेर सुनाते, और उनकी आवाज़ के साथ पूरा जिस्म भी शायरी का हिस्सा बन जाता। हर मुशायरे में उनका ख़ास पहनावा होता—खादी का सफेद कुर्ता-पायजामा—जो आमतौर पर किसी स्थानीय खादी भंडार से ख़रीदा जाता था।
जब कमाल अमरोही हुए दीवाने
एक मुशायरे में कमाल अमरोही ने कैफ़ को पहली बार सुना और इतने प्रभावित हुए कि उन्हें फ़िल्मों में गीत लिखने की सलाह दी। यही से कैफ़ साहब का फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ।
उनकी पहली फिल्म थी 'दायरा', जिसमें उन्होंने लिखा:
"देवता तुम हो मेरा सहारा
मैंने थामा है दामन तुम्हारा"
इस गीत की लोकप्रियता ने उन्हें कमाल अमरोही का प्रिय बना दिया। इसके बाद कमाल साहब की हर फ़िल्म में एक-दो गीत कैफ़ भोपाली से ज़रूर लिखवाए जाते।
कैफ़ भोपाली कहां हैं?
कैफ़ साहब का कोई स्थायी ठिकाना नहीं था। वे जिस शहर में होते, वहीं किसी होटल या घर को अपना अस्थायी पता बना लेते। इसी वजह से कमाल अमरोही ने अपने स्टाफ में एक शख्स को विशेष रूप से इस काम के लिए रखा कि वह कैफ़ साहब के ठिकानों की जानकारी रखे।
जब भी किसी फिल्म के लिए कैफ़ की ज़रूरत होती, उन्हें ढूंढ़ कर लाया जाता, कमालिस्तान स्टूडियो में ठहराया जाता, नए कपड़े सिलवाए जाते, और पास की दुकानों में शराब के खाते तक खुलवाए जाते।
गीतों की मेज़बानी से विदाई तक
यह पूरा सिलसिला तब तक चलता जब तक कैफ़ अपने गीत पूरे न कर लें। गीत रिकॉर्ड होते ही उन्हें पारिश्रमिक सहित विदा कर दिया जाता। यह परंपरा कमाल अमरोही की अंतिम फ़िल्म ‘रज़िया सुल्तान’ तक जारी रही।
कई बार उनके लिखे गीत कमाल अमरोही के नाम से फिल्म में दर्ज होते, जैसे:
"इंतज़ार की शब में चिलमने सरकती हैं
चौंकते हैं दरवाज़े, सीढ़ियां धड़कती हैं"
(शंकर हुसैन, 1977)
‘प्रीत’ के शायर, ‘गीत’ से आगे
'पाकीज़ा' के अमर गीतों के बाद उन्हें और भी फिल्मी प्रस्ताव मिले, मगर उन्होंने ठुकरा दिए। वजह साफ़ थी—कमाल अमरोही जैसी तहज़ीब उन्हें किसी और जगह नहीं मिली। उनके लिए गीतों से ज़्यादा अहम था इंसान का लहजा और रिश्तों की गर्मी।
एक फकीर शायर का विदा लेना
1991 में कैफ़ भोपाली इस दुनिया को अलविदा कह गए। मगर उनके शेर आज भी गूंजते हैं। जैसे उन्होंने खुद कहा:
"अज़ां होने को है जामो-सुराही से चिराग़ां कर
कि वक़्ते-शाम, वक़्ते शाम, वक़्ते शाम है साकी"
वक़्त की शाम को रौशन करने वाले इस शायर की यादें आज भी शायरी की शामों को गुलज़ार करती हैं।
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