कामायनी

BY PRATIBHA SRIVASTAVA
जयशंकर प्रसाद
कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी
सोम लता तब मनु को।
चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर
उसने जीवन धनु को।
हुए अग्रसर से मार्ग में
छुटे-तीर-से-फिर वे।
यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से
रह न सके अब थिर वे।
भरा कान में कथन काम का
मन में नव अभिलाषा।
लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित
उमड़ रही थी आशा।
ललक रही थी ललित लालसा
सोमपान की प्यासी।
जीवन के उस दीन विभव में
जैसे बनी उदासी।
जीवन की अभिराम साधना
भर उत्साह खड़ी थी।
ज्यों प्रतिकूल पवन में तरणी
गहरे लौट पड़ी थी।
No Previous Comments found.