प्रेम, बहाव और काग़ज़ की नाव, एक कवि की बेचैन आत्मा

हिंदी साहित्य की गंभीर, विचारशील और नैतिक चेतना से भरपूर आवाज़...कुंवर नारायण। कुंवर नारायण, जिनका जन्म 19 सितम्बर 1927 को उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद (अब अयोध्या) में हुआ था, हिंदी के उन चुनिंदा कवियों में रहे, जिन्होंने कविता को केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि बौद्धिक और दार्शनिक स्तर पर भी समृद्ध किया। उनका पहला कविता संग्रह ‘चक्रव्यूह’ 1956 में प्रकाशित हुआ, जिसे अत्यधिक सराहना मिली। इसके बाद ‘परिवेश: हम-तुम’, ‘आत्मजयी’, ‘कोई दूसरा नहीं’, ‘इन दिनों’, और ‘वाजश्रवा के बहाने’ जैसे संग्रहों ने उन्हें हिंदी कविता की गंभीर परंपरा में एक नई पहचान दी। कुंवर नारायण न केवल एक कवि थे, बल्कि एक चिंतक, समीक्षक और मानवीय मूल्यों के सजग प्रहरी भी थे। उनके निधन को साहित्य की एक विचारशील पीढ़ी का अंत माना जा रहा है।
एक अजीब सी मुश्किल में हूं इन दिनों-
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत
दिनों-दिन क्षीण पड़ती जा रही,
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?
अंग्रेजों से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपियर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने अहसान हैं
सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरुनानक आंखों में छा जाते
और सिर अपने आप झुक जाता
और ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी...
लाख समझाता अपने को
कि वे मेरे नहीं दूर कहीं दक्षिण के हैं
पर मन है कि मानता ही नहीं
बिना इन्हें अपनाए
और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका खून कर दूं !
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र, कभी मां, कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूंट पीकर रह जाता
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफरत कर के
अपना जी हल्का कर लूं !
पर होता है इसका ठीक उल्टा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता
दिनों-दिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि यह प्रेम किसी दिन मुझे स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा
छोटी कविताएं...
कोई दुख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं
वही हारा
जो लड़ा नहीं
एक ही कविता में होती हैं
कई कई कविताएं
जैसे एक ही जीवन में
कई जीवन....
छोटी-छोटी संपूर्णताओं का
एक अधूरा संग्रह
पूरा जीवन
तेज़ धारा की पकड़ में
आ गया वह
मेरे हाथों से छूट गया है
उसका हाथ
कच्चा तैराक़ है
उखड़ती सांस
उखड़ते पांव
न थाह न ठहराव
पता नहीं
यह धारा उसे बहा ले जाएगी
या किसी नए तट से लगाएगी
एक साफ़ सुथरे चौकोर काग़ज की तरह
उठाकर ज़िंदगी को प्यार से
सोचता हूं इस पर कुछ लिखूं
फिर
उसे कई मोड़ देकर
कई तहों में बांटकर
एक नाव बनाता हूं
और बहते पानी पर चुपचाप छोड़कर
उससे अलग हो जाता हूं
बहाव में वह
काग़ज नहीं
एक बच्चे की खुशी है
फूल फिर एक घटना है जो घट रही
खुशबू एक ख़बर है जो फैल रही
उसके अथाह वैभव की !
अचानक रंग चीख़ते- ''बचाओ
खून हो रहा हरियाली पर ''
स्तब्ध है सन्नाटा
समय फिर निकल भागा
सर्वस्व लूटकर
आदमी के बनाए
किसी भी क़ानून की गिरफ़्त से छूटकर
आसमान से उतरी थी
कभी सवेरे
अप्सरा सी जगमगाती धूप
दुनिया की सैर के लिए
किराये के दो कमरों में
रहती है आजकल
शाम को आती है
सिर्फ़ सोने के लिए
कमरे में रुआंसी-सी
ज़रा- सी धूप
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