कैलाश गौतम की कविता 'अमौसा के मेला' , कुंभ मेले की याद दिलाता है

माघ मेला हो या कुम्भ या फिर महाकुंभ. अमावस्या स्नान को लेकर लोगों में बहुत ही गहरी आस्था रहती है. ऐसे में कैलाश गौतम की रचना अमावस्या का मेला आज की दिन बड़ा ही प्रासंगिक है. पूरे विश्व में अमावस्या के दिन इस रचना को याद किया जाता है. 1989 में इस रचना को स्व. जनकवि कैलाश गौतम ने लिखा था. लोककवि कैलाश गौतम अपनी किस्म के एकदम अनोखे कवि थे। लोकभाषा में रचे उनके गीतों-कविताओं में रस, अनुपम छंद, संवेदनाएं, मनोरंजन और लोकजीवन की उपस्थिति मिलेगी। उनके गीत आंचलिक बिम्बों से पटे पड़े हैं। ग्रामीण जीवन शैली की उठापटक को उन्होंने अपने कविताओं और गीतों बखूबी दिखाया।

प्रयागराज में कुंभ का आयोजन हो रहा है और दूर-दूर से लोग गंगा स्नान के लिए प्रयाग आ रहे हैं। इस दौरान मेले में कैसे-कैसे लोग आते हैं, उनकी तैयारियां, रेलवे स्टेशन की भीड़, मेले का उत्साह, भूले-बिछुड़े लोगों का मेले में मिलन और तमाम ऐसी घटनाओं का कविता में वर्णन किया गया है। 

भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा

भक्ति और धर्म में मशगूल होकर गांव भर के लोग अमौसा नहाने (कुंभ स्नान) चल चुके हैं। 

एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू

इस हाथ में भी झोला, उस हाथ में भी झोला है, कंधे पर बोरी, सर पर बोरा, कोई कथरी में है तो कोई रजाई में। 

आजी रँगावत रही गोड़ देखा,
हँसत हँउवे बब्बा, तनी जोड़ देखा
घुंघटवे से पूछे पतोहिया कि, अईया,
गठरिया में अब का रखाई बतईहा

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