जगजीत सिंह: एक आवाज़ जो दूर तलक आपको सुकून देती है

जब गला सूखता है तब पानी पीया जाता है लेकिन जब आत्मा ही अतृप्त हो तो उसके लिए भौतिक उपकरण नहीं बल्कि ऐसे उपाय चाहिए जिनसे जीवन किसी अलौकिक रेखा पर खड़ा हुआ महसूस हो। 9 घंटे के दफ़्तर और दिन भर मशीन पर आंखें थका देने के बाद मन को कुछ ऐसी ही ज़रूरत होती है। उस समय एक आवाज़ है जो दूर तलक आपको सुकून देती है। वो आवाज़ है ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह की। आईए पढ़ते हैं उनके द्वारा लिखे हुए गज़ल-  

 

1. तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो

आंखों में नमी हंसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो

बन जाएंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यूं उन्हें छेड़े जा रहे हो

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो  

2. झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं

दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं

तू अपने दिल की जवां धड़कनों को गिन के बता
मिरी तरह तिरा दिल बे-क़रार है कि नहीं

वो पल कि जिस में मोहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतिज़ार है कि नहीं

तिरी उमीद पे ठुकरा रहा हूं दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ए'तिबार है कि नहीं 

3. तेरे आने की जब ख़बर महके

तेरी ख़ुशबू से सारा घर महके

शाम महके तिरे तसव्वुर से
शाम के बा'द फिर सहर महके

रात भर सोचता रहा तुझ को
ज़ेहन-ओ-दिल मेरे रात भर महके

याद आए तो दिल मुनव्वर हो
दीद हो जाए तो नज़र महके

वो घड़ी-दो-घड़ी जहाँ बैठे
वो ज़मीं महके वो शजर महके

4. प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है

नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है

जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है

गाँठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी
लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है

हम ने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूँढ़ लिया लेकिन
गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है

5. हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले

मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

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