बाबा नागार्जुन :‘जनता पूछ रही क्या बतलाऊं, जनकवि हूं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं’

बिहार के मधुबनी में 1911 में जन्मे वैद्यनाथ मिश्र कई भाषाएं जानते थे. मैथिली में वो यात्री  नाम से लिखते थे. राहुल सांकृत्यायन से प्रभावित होकर उन्होंने श्रीलंका जाकर पाली भाषा सीखी और वहीं उन्हें नागार्जुन नाम मिला. मैथिली, हिन्दी, पाली, संस्कृति, बांग्ला समेत उन्हें कई भाषाएं आती थीं. उन्होंने अपनी मातृभाषा मैथिली को भी अपने रचना कर्म से संपन्न किया है.

नागार्जुन का समूचा जीवन फक्कड़पन और यायावरी में बीता. लेकिन वो लगातार लिखते रहे. जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, बाल ठाकरे से लेकर मायावती तक को उन्होंने अपनी रचनाओं का हिस्सा बनाया. उनकी रचनाओं में मानवीय पीड़ा, उनका अपना लोक संस्कार, दबे-कुचले लोगों का स्वर, राजनीतिक घटनाओं पर टिप्पणी जगह पाती है.  आज भी उनकी कविताएं याद की जाती हैं. आईये पढ़ते हैं उनके द्वारा लिखी हुई बसंत ऋतु पर ये कविता- 

रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियां
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं...
चूम रही हैं--
कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !!
इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-मुई की लोच-लाज को !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ...
उद्धित जग की ये किन्नरियाँ
अपने ही कोमल-कच्चे वृन्तों की मनहर सन्धि भंगिमा
अनुपल इनमें भरती जाती
ललित लास्य की लोल लहरियाँ !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ !!
रंग-बिरंगी खिली-अधखिली...

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