नरेन्द्र शर्मा: क्या नींद उचट जाने से रात किसी की कट जाती है?

नरेन्द्र शर्मा का जन्म 28 फ़रवरी, 1913 ई. में गांव जहांगीरपुर, परगना ज़ेवर, तहसील खुर्जा ,जिला- बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश) में हुआ था। 1931 ई. में इनकी पहली कविता 'चांद' में छपी। शीघ्र ही जागरूक, अध्ययनशील और भावुक कवि नरेन्द्र ने उदीयमान नए कवियों में अपना प्रमुख स्थान बना लिया। आईए पढ़ते हैं नरेंद्र शर्मा की "जब-तब नींद उचट जाती है" कविता- 

जब-तब नींद उचट जाती है
पर क्या नींद उचट जाने से
रात किसी की कट जाती है?

देख-देख दु:स्वप्न भयंकर,
चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;
पर भीतर के दु:स्वप्नों से
अधिक भयावह है तम बाहर!
आती नहीं उषा, बस केवल
आने की आहट आती है!

देख अँधेरा नयन दूखते,
दुश्चिंता में प्राण सूखते!
सन्नाटा गहरा हो जाता,
जब-जब श्वन श्रृगाल भूँकते!
भीत भवना, भोर सुनहली
नयनों के न निकट लाती है!

मन होता है फिर सो जाऊँ,
गहरी निद्रा में खो जाऊँ;
जब तक रात रहे धरती पर,
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ!
उस करवट अकुलाहट थी, पर
नींद न इस करवट आती है!

करवट नहीं बदलता है तम,
मन उतावलेपन में अक्षम!
जगते अपलक नयन बावले,
थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!
साँस आस में अटकी, मन को
आस रात भर भटकाती है!

जागृति नहीं अनिद्रा मेंरी,
नहीं गई भव-निशा अँधेरी!
अंधकार केंद्रित धरती पर,
देती रही ज्योति चकफेरी!
अंतर्यानों के आगे से
शिला न तम की हट पाती है!

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