तुर्की कवि नाज़िम की कविता 'खड़ा हूँ मैं राह दिखाती हुई रोशनी में'

नाज़िम हिक़मत का जन्म 15 जनवरी, 1902 को तत्कालीन ऑटोमन साम्राज्य के सालोनिका में हुआ था और 3 जून, 1963 को मास्को में उनकी मृत्यु हो गई थी. उन्होंने अपनी ज़िंदगी का लंबा अर्सा जेल में बिताया. जेल में रहते हुए उन्होंने कई कवितायें लिखी थीं. नाज़िम को रूमानी विद्रोही कहा जाता था. क्योंकि वो कहीं रूमानी तो कहीं विद्रोही और कहीं दार्शनिक नज़र आते हैं. नाज़िम की कविताओं में ज़िंदगी और विद्रोह एक साथ दिखता है. आईये पढ़ते हैं उनके द्वारा लिखी हुई कविता 'खड़ा हूँ मैं राह दिखाती हुई रोशनी में'

दरअसल, यह कुछ इस तरह से है

खड़ा हूँ मैं राह दिखाती हुई रौशनी में,
भूखे हैं मेरे हाथ, खूबसूरत है दुनिया.

बाग का बड़ा हिस्सा नही पातीं मेरी आँखें
कितने आशापूर्ण हैं वे, कितने हरे-भरे .

एक चमकीली सड़क गुजर रही है शहतूत के पेड़ों से होकर
कैदखाने के अस्पताल की खिड़की पर खड़ा हूँ मैं.

दवाओं की गंध नहीं ले पा रहा मैं --
जरूर गुलनार के फूल खिल रहे होंगे कहीं आस-पास.

इस तरह से है यह :
गिरफ्तारी तो दीगर मसला है,
असल मुद्दा है हार न मानना।

Leave a Reply



comments

Loading.....
  • No Previous Comments found.