"झाँसी की रानी" - सुभद्रा कुमारी चौहान

"झाँसी की रानी" हिंदी की प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की सबसे प्रसिद्ध कविता है। यह कविता रानी लक्ष्मीबाई के अद्भुत साहस, वीरता और बलिदान की गाथा को दर्शाती है। 1857 की क्रांति में झाँसी की रानी ने अंग्रेज़ों से युद्ध किया और अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान दिया। वीर रस से भरपूर यह कविता भारत की स्वतंत्रता संग्राम की महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की शौर्य गाथा को अमर कर देती है। पेश है सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता  "झाँसी की रानी"- 

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना साहब से उसने मेल बढ़ाया था,
लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में अपना दल बनवाया था।
अंग्रेजों के क़दमों में फिर उसने आग लगाई थी,
अपनी झाँसी से फिरंगी की सेना भागे आई थी।
पर अंग्रेज़ भी चालाक बहुत, झाँसी पर चढ़ाई थी,
लड़ी वीरता से लक्ष्मीबाई, हर चोटी जलवाई थी।।

पर न रुकी वह युद्धभूमि में, गिरी, पर फिर संभल गई,
अश्व पर चढ़, बच्चे को लेकर, वीरगति को प्राप्त हुई।
गूंज उठी फिज़ाओं में तब भारत माँ की बानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

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