मिर्ज़ा ग़ालिब: दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है...

"दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है"

ये शेर उनकी ग़ज़ल का हिस्सा है जो इंसानी दिल की नासमझी और बेचैनी को बख़ूबी बयाँ करता है। ग़ालिब अपने अल्फ़ाज़ से जैसे सीधे रूह से बात करते हैं।  आइए मिर्ज़ा ग़ालिब की ये पूरी ग़ज़ल पढ़ते हैं, जो उनके दीवान से है और ग़ज़ल की दुनिया में एक अमूल्य रत्न मानी जाती है: मिर्ज़ा ग़ालिब की ये ग़ज़ल वाक़ई दिल की तहों को छू जाती है — हर शेर एक आईना है जिसमें इंसानी जज़्बात, उलझनें, और तमन्नाएँ झलकती हैं।


दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है

मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है

ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है

शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है

सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है

हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

हाँ भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है

जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है

मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है

 

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