महाभारत के अंतिम दिन की घटनाएँ- "अंधायुग"

1953 में प्रकाशित "अंधायुग" धर्मवीर भारती द्वारा रचित एक अत्यंत प्रसिद्ध और प्रभावशाली हिंदी नाटक है। यह न केवल साहित्यिक दृष्टि से गहन है, बल्कि मंचन के लिए भी बहुत समृद्ध है। जो आधुनिक युग का प्रतीकात्मक और दार्शनिक नाटक है. इसका विषय महाभारत के अंतिम दिन की घटनाएँ है. अंधायुग की कहानी महाभारत के युद्ध के 18वें दिन के बाद से शुरू होती है, जब युद्ध समाप्त हो चुका होता है लेकिन नैतिकता, धर्म, और मानवता के सवाल खड़े होते हैं।

  • धृतराष्ट्र अंधे हैं – शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी।
  • अश्वत्थामा – द्रोणाचार्य का पुत्र, युद्ध में अपने पिता की मृत्यु के कारण आक्रोश से भरा है और प्रतिशोध लेना चाहता है।
  • कृष्ण – विवेक और धर्म का प्रतीक हैं, परंतु मौन हैं।
  • विदुर, संजय, गंधारी, और युद्ध के बचे हुए पात्र – सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से नैतिकता की खोज कर रहे हैं।

इस नाटक का केंद्रीय बिंदु है – अश्वत्थामा द्वारा पांडवों के पाँच पुत्रों की हत्या, जो युद्ध के बाद की हिंसा को दर्शाता है। इसके ज़रिए लेखक यह दिखाते हैं कि युद्ध के बाद भी विनाश थमता नहीं, वह अंधकार में गहराता चला जाता है।

यह नाटक भारतीय रंगमंच पर सबसे अधिक प्रस्तुत किए जाने वाले नाटकों में से एक है। ईब्राहिम अल्काज़ी, अरविंद गौड़, और अन्य निर्देशकों ने इसे भव्य रूप में प्रस्तुत किया है। 

आईये एक नज़र डालते हैं इस नाटक के प्रसिद्ध संवाद पर- 

 1. अश्वत्थामा का संवाद (प्रतिशोध में पागल)
“मैं समय हूँ, विनाश का समय!
मैं नहीं सहूंगा अपने पिता की हत्या,
पांडवों की संतानें जलेंगी – यही मेरा धर्म है!”

यह संवाद दिखाता है कि अश्वत्थामा कैसे धर्म और अधर्म के बीच खुद को भ्रमित कर बैठा है।

 2. कृष्ण का मौन संवाद (अंत में)
“मैं मौन हूँ, क्योंकि अब शब्द व्यर्थ हैं।
जो होना था, हो चुका।
अब अंधकार से लड़ने की बारी तुम्हारी है।”

कृष्ण का मौन आत्मा की आवाज़ बन जाता है – पाठक से सीधा संवाद।

 3. धृतराष्ट्र का संवाद (नेत्रहीन राजा)
“मैंने कभी देखा नहीं…
और शायद कभी समझा भी नहीं…
जो कुछ भी हुआ, वह मेरे अंधकार की देन है।”

 यह संवाद नेतृत्व की विफलता और आत्मबोध का प्रतिनिधित्व करता है।

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