ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह: कुमार विश्वास

विश्वास का जन्म 10 फरवरी 1970 को उत्तर प्रदेश के पिलखुवा कस्बे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था, जहाँ उन्होंने लाला गंगा सहाय स्कूल में पढ़ाई की। उनके पिता चंद्र पाल शर्मा पिलखुवा में आरएसएस डिग्री कॉलेज में लेक्चरर थे और उनकी माँ रमा शर्मा गृहिणी थीं। विश्वास सबसे छोटे बच्चे हैं और उनके चार भाई और एक बहन हैं। कुमार विश्वास की सबसे प्रसिद्ध कविता "कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है" है। इस कविता में, प्रेम और पागलपन की तुलना की गई है, और यह उनके रचनाधर्म को दर्शाती है।
कुमार विश्वास बचपन से ही कवि बनने की इच्छा रखते थे, लेकिन उनके पिता चाहते थे कि वे इंजीनियर बनें। हालांकि, उन्होंने इंजीनियरिंग छोड़कर हिंदी साहित्य में स्नातक की डिग्री हासिल की और बाद में पीएचडी भी की। अपने साहित्यिक सफर में उन्होंने 'विश्वास कुमार शर्मा' नाम से 'कुमार विश्वास' नाम अपना लिया और कवि के रूप में अपनी पहचान बनाई. पेश है उनके द्वारा लिखी हुई ग़ज़ल - ''ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह"
ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह?
ढेर-सी चमक-चहक चेहरे पर लटकाए हुए
हँसी को बेचकर बेमोल वक़्त के हाथों
शाम तक उन ही थकानों में लौटने के लिए
ये इतने लोग कहाँ जाते है सुबह-सुबह?
ये इतने पाँव सड़क को सलाम करते हैं
हरारतों को अपनी बक़ाया नींद पिला
उसी उदास और पीली-सी रौशनी में लिपट
रात तक उन ही मकानों में लौटने के लिए
ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह
शाम तक उन ही थकानों में लौटने के लिए
ये इतने लोग, कि जिनमें कभी मैं शामिल था
ये सारे लोग जो सिमटें तो शहर बनता है
शहर का दरिया क्यों सुबह से फूट पड़ता है
रात की सर्द चट्टानों में लौटने के लिए
ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह
शाम तक उन ही थकानों में लौटने के लिए
ये इतने लोग, क्या इनमें वो लोग शामिल हैं
जो कभी मेरी तरह प्यार जी गए होंगे
या इनमें कोई नहीं ज़िंदा, सिर्फ़ लाशें हैं
ये भी क्या ज़िंदगी का ज़हर पी गए होंगे
ये सारे लोग निकलते हैं घर से, इन सबको
इतना मालूम है, जाना है, लौट आना है
ये सारे लोग भले लगते हों मशीनों से
मगर इन ज़िंदा मशीनों का इक ठिकाना है
मुझे तो इतना भी मालूम नहीं जाना है कहाँ?
मैंने पूछा नहीं था, तूने बताया था कहाँ?
ख़ुद में सिमटा हुआ, ठिठका-सा खड़ा हूँ ऐसे
मुझपे हँसता है मेरा वक़्त, तेरे दोनों जहाँ
जो तेरे इश्क़ में सीखे हैं रतजगे मैंने
उन्हीं की गूँज पूरी रात आती रहती है
सुबह जब जगता है अंबर तो रौशनी की परी
मेरी पलकों पे अंगारे बिछाती रहती है
मैं इस शहर में सबसे जुदा, तुझसे, ख़ुद से
सुबह और शाम को इकसार करता रहता हूँ
मौत की फ़ाहशा औरत से मिला कर आँखें
सुबह से ज़िंदगी पर वार करता रहता हूँ
मैं कितना ख़ुश था चमकती हुई दुनिया में मेरी
मगर तू छोड़ गया हाथ मेरा मेले में
इतनी भटकन है मेरी सोच के परिंदों में
मैं ख़ुद से मिलता नहीं भीड़ में, अकेले में
जब तलक जिस्म ये मिट्टी न हो फिर से, तब तक
मुझे तो कोई भी मंज़िल नज़र नहीं आती
ये दिन और रात की साज़िश है, वगरना मेरी
कभी भी शब नहीं ढलती, सहर नहीं आती
तभी तो रोज़ यही सोचता रहता हूँ मैं
ये इतनै लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह?
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