‘तोड़ दो ये मंदिर–मस्जिद’– दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार हिंदी साहित्य में एक बड़ा नाम है। इन्होंने हिंदी भाषा में गजलों को पेश करते हिंदी साहित्य में एक नई बयार बहाई थी। दुष्यंत से पहले शमशेर बहादुर, निराला, हरिकृष्ण प्रेमी, शंभुनाथ शेष, चिरंजित ने गजलें पेश की लेकिन ये कवि उसे उर्दू से अलग नहीं कर पाए थे। दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल "तोड़ दो ये मंदिर-मस्जिद" एक सामाजिक और राजनीतिक संदेश देती है। इस ग़ज़ल में, कवि धार्मिक भेदभाव और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाता है और एक बेहतर, न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करता है. 

यह ग़ज़ल दुष्यंत कुमार के प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह "साये में धूप" से ली गई है. जिसमें  कवि लोगों से धार्मिक और सामाजिक दीवारों को तोड़ने का आग्रह करता है. वह अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है और एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जहां सभी लोग समान रूप से जीवित रह सकें. पेश है 

 पेश है ग़ज़ल की पंक्तियाँ:
"तोड़ दो ये मंदिर-मस्जिद, कि यहाँ तो सब हैं एक" 
"बैर के भी बीज यहां, फिर कहां से प्रेम मिलेगा" 
"ये कहानी अब पुरानी, यहाँ तो बस एक ही है" 
"धूप भी है साये में, यहाँ तो सब कुछ है" 

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