मिर्ज़ा ग़ालिब: "हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले"

मिर्ज़ा ग़ालिब, जिनका असली नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान था, 19वीं सदी के भारत के महान उर्दू और फ़ारसी कवि थे। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था, और वे दिल्ली में 15 फरवरी 1869 को निधन को प्राप्त हुए। ग़ालिब को उर्दू ग़ज़ल के सबसे प्रभावशाली और कालजयी शायरों में गिना जाता है, जिनकी रचनाएँ आज भी पाठकों और श्रोताओं को गहराई से प्रभावित करती हैं। पेश है ग़ालिब के प्रसिद्ध शेर "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले"
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
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