लघु कथा: "असली कुर्बानी"

गाँव के एक छोटे से घर में रहता था 12 साल का आरिफ़। इस बार की बकरीद उसके लिए बेहद ख़ास थी – अब्बू ने उसे पहली बार एक बकरा ख़रीदने की ज़िम्मेदारी दी थी। वह बड़े शौक़ से हफ़्तों उस बकरे की देखभाल करता रहा। उसका नाम रख दिया – "चांदू"।
चांदू उसके लिए एक बकरा नहीं, दोस्त बन गया था। वो उसे नहलाता, चारा खिलाता, उसके गले में फूलों की माला डालता, और दिन भर बातें करता।
फिर आई बकरीद की सुबह।
अब्बू ने आरिफ़ से कहा, "बेटा, अब समय है चांदू की कुर्बानी का। अल्लाह के हुक्म को निभाना है।"
आरिफ़ की आँखें भर आईं। वो बोला, “अब्बू, क्या अल्लाह हमारी भावनाएँ नहीं समझते? क्या कोई और तरीका नहीं जिससे मैं कुर्बानी दे सकूं… लेकिन चांदू को बचा सकूं?”
अब्बू कुछ सोच में पड़ गए। फिर बोले, “असल में कुर्बानी जानवर की नहीं, त्याग की होती है। अगर तू कुछ ऐसा छोड़ने को तैयार हो, जो तुझे बेहद अज़ीज़ हो, तो वो भी कुर्बानी मानी जा सकती है।”
आरिफ़ ने बिना समय गंवाए अपना सबसे प्रिय खिलौना – एक पुरानी कार जो दादी से तोहफ़े में मिली थी – निकालकर गरीब बच्चों को दे दिया। और हर दिन चांदू की देखभाल के बदले वह गाँव के अनाथ बकरों को भी खाना देने लगा।
अब्बू ने मुस्कराकर कहा, “बेटा, तूने आज असली कुर्बानी दी है – अपने स्वार्थ और लगाव की।”
संदेश:
बकरीद केवल जानवर की बलि का त्योहार नहीं, बल्कि अपने अहंकार, लालच और मोह की बलि देकर इंसानियत, दया और त्याग को अपनाने का पर्व है।
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