"बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की उपन्यास "देवी चौधुरानी: नारी शक्ति की प्रतीक"

1838 में एक परंपरागत और समृद्ध बंगाली परिवार में 27 जून, कांठालपाड़ा, नैहाटी, पश्चिम बंगाल में जन्मे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की पहली प्रकाशित बांग्ला कृति 'दुर्गेशनंदिनी' थी जो मार्च 1865 में छपी थी. 'दुर्गेशनंदिनी' एक उपन्यास था लेकिन आगे चलकर उन्हें महसूस हुआ कि उनकी असली प्रतिभा काव्य लेखन के क्षेत्र में है और उन्होंने कविताएँ लिखना शुरू कर दिया. वे वंदे मातरम के रचयिता थे, जो अत्यधिक संस्कृतनिष्ठ बंगाली में लिखा गया था, जिसमें भारत को एक देवी माँ के रूप में चित्रित किया गया था और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया था।
चट्टोपाध्याय ने बंगाली में चौदह उपन्यास और कई गंभीर, गंभीर-हास्य, व्यंग्य, वैज्ञानिक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखे। इनमें से उनके द्वारा लिखा गया "देवी चौधुरानी" एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक-सामाजिक उपन्यास है, जो 1884 में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास बंगाली साहित्य में नारी सशक्तिकरण का एक अग्रदूत माना जाता है। इसमें एक सामान्य स्त्री के वीरांगना बनने की प्रेरणादायक गाथा है।
"देवी चौधुरानी"
कहानी की नायिका प्रभावती को उसके ससुर राय चौधुरी विवाह के बाद घर से निकाल देते हैं क्योंकि उसकी मां गरीब थी। उसके पति से भी उसका कोई संबंध नहीं बन पाता।
एक कठिन जीवन जीने के बाद, प्रभावती डाकुओं के नेता भीम से मिलती है, जो उसे साहस, युद्धकला, नीति और नेतृत्व सिखाता है। धीरे-धीरे वह डाकुओं की नेता बन जाती है और "देवी चौधुरानी" कहलाने लगती है।
देवी चौधुरानी केवल लूटपाट नहीं करती, बल्कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष करती है। वह अमीरों से धन लूटकर गरीबों की सहायता करती है, इस तरह वह एक न्यायप्रिय क्रांतिकारी के रूप में उभरती है।
अंत में वह अपने ससुराल लौटती है और अपने पति और परिवार को स्वीकार करती है, लेकिन एक नई पहचान और सम्मान के साथ।
"देवी चौधुरानी" केवल एक कथा नहीं, बल्कि स्त्री शक्ति, सामाजिक न्याय और राष्ट्र सेवा का संदेश है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इस रचना के माध्यम से साबित किया कि कलम तलवार से कहीं अधिक प्रभावशाली हो सकती है।
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