"नागार्जुन" की कविता - "कल्पना के पुत्र हे भगवान"

हिंदी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को हुआ था। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था, लेकिन वे साहित्य जगत में नागार्जुन के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्हें “जनकवि” कहा जाता है क्योंकि उनकी कविताएँ आम जनमानस की आवाज़ बनकर उभरीं — ग्रामीण जीवन, राजनीतिक संघर्ष, सामाजिक विषमता और शोषण जैसे विषयों को उन्होंने बड़ी सरलता और प्रभावशाली ढंग से अपनी कविताओं में जगह दी।
उनकी लेखनी की खास बात थी की वो अपनी सरल भाषा में गहरी बात कह देते थे, उन्होंने राजनीतिक चेतना और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी कविताएँ, बच्चों के लिए कविताएँ लिखीं. नागार्जुन एक प्रगतिशील कवि माने जाते हैं
उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में पतरिया,बलचनमा (उपन्यास),रतिनाथ की चाची (उपन्यास),भस्म हो गया सोना शामिल हैं. उन्होनें कई प्रसिद्ध कविताएं लिखीं नागार्जुन की कविताएँ लिखीं जिनमें -अकाल और उसके बाद, बादल को घिरते देखा, कालिदास, सिंदूर तिलकित भाल, गुलाबी चूड़ियाँ, कल्पना के पुत्र हे भगवान शामिल है- पेश है उनके द्वारा लिख हुई "कल्पना के पुत्र हे भगवान"
कल्पना के पुत्र हे भगवान
चाहिए मुझको नहीं वरदान
दे सको तो दो मुझे अभिशाप
प्रिय मुझे है जलन, प्रिय संताप
चाहिए मुझको नहीं यह शांति
चाहिए संदेह, उलझन, भ्रांति
रहूँ मैं दिन-रात ही बेचैन
आग बरसाते रहें ये नैन
करूँ मैं उद्दंडता के काम
लूँ न भ्रम से भी तुम्हारा नाम
करूँ जो कुछ, सो निडर, निश्शंक
हो नहीं यमदूत का आतंक
घोर अपराधी-सदृश हो नत बदन निर्वाक
बाप-दादों की तरह रगड़ूँ न मैं निज नाक—
मंदिरों की देहली पर पकड़ दोनों कान
हे हमारी कल्पना के पुत्र, हे भगवान,
युगों से अराधना की, आ गए अब तंग
—झाल और मृदंग
शंख करता आ रहा था युगों से आक्रंद
तुम न पिघले, पड़ गई आवाज़ उसकी मंद
न अब तक सुलझे तुम्हारे बाल
थक गईं लाखों उँगलियाँ, हो गया अतिकाल
अँधेरे में रहे लोग टटोल—
ठोस हो या पोल?
हो गए नीरस तुम्हारी चिंतना में—
व्यस्त होकर तर्क औ’ अनुमान
हे हमारी कल्पना के पुत्र, हे भगवान!
परिधि यह संकीर्ण, इसमें ले न सकते साँस
गले को जकड़े हुए हैं यम-नियम के फाँस
—पुराने आचार और विचार
गगन में नीहारिकाओं को न करने दे रहे
अभिसार
छोड़कर प्रासाद खोजूँ खोह—
कह रहा है पूर्वजों का मोह
ज़ोर देकर कह रहे ये वेद और पुरान
मूल से चिपटे रहो नादान
बनूँ मैं सज्जन, सुशील विनीत
हार को समझा करूँ मैं जीत
क्रोध का अक्रोध से कर अंत
बनूँ मैं आदर्श मानव संत
रह न जाए उष्णता कुछ रक्त में अवशिष्ट
गुरुजनों को भी यही था इष्ट
सड़ गई है आँत
पर दिखाए जा रहे हैं दाँत
छोड़कर संकोच, तजकर लाज
दे रहा है गालियाँ यह जीर्ण-शीर्ण समाज
खोलकर बंधन, मिटाकर नियति के आलेख
लिया मैंने मुक्ति पथ को देख
नदी कर ली पार, उसके बाद
नाव को लेता चलूँ पीठ पर मैं लाद
सामने फैला पड़ा शतरंज-सा संसार
स्वप्न में भी मैं न इसको समझता निरस्सार
इसी में भव, इसी में निर्वाण
इसी में तन-मन, इसी में प्राण
यहीं जड़-जंगम सचेतन औ’ अचेतन जंतु
यहीं ‘हाँ,’ ‘ना’, ‘किंतु’ और ‘परंतु’
यहीं है सुख-दुःख का अवबोध
यहीं हर्ष-विषाद, चिंता-क्रोध
यहीं है संभावना, अनुमान
यहीं स्मृति-विस्मृति सभी का स्थान
छोड़कर इसको कहाँ निस्तार
छोड़कर इसको कहाँ उद्धार
स्वजन-परिजन, इष्ट-मित्र, पड़ोसियों की याद
रहे आती, तुम रहो यों ही वितंडावाद
मूँद आँखें शून्य का ही करूँ मैं तो ध्यान?
कल्पना के पुत्र हे भगवान!
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